हां ,
इस रात शमा बुझ जाने दे,
अब कल कोई सुबह ना हो
ना हो कोई सपना अब,
अब कोई हमसे जुदा ना हो।
किस दिन का इंतज़ार करता रहूं,
वो दिन आएगा जब हम मौजूदा ना हों
पड़ी रहेगी मिट्टी यहां पर,
और ज़िन्दगी में कोई हमसे रूठा ना हो।
चल पड़ूंगा उन रास्तों पर,
जिन रास्तों पर मुझ जैसा दूजा ना हो
जहां हो ब्रह्म खुद में पर्याप्त,
और घंटी बजाकर उसकी पूजा ना हो।
चला अब उस मयखाने की ओर,
जहां जाम के बिना कोई कंठ सूखा ना हो
हो पर्याप्त प्रेम ही केवल,
खाने को अब कोई गरीब भूखा ना हो।
रहेगी गति प्रकाश के समान,
अब कोई इंसान जैसा वहां नमूना ना हो
हो केवल बेहता एक प्रेम का सागर,
और लिखता रहूं एक कविता जो पूरा ना हो।।
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