...तुम कहा हो
बताओ तुम कहा हो
कभी बाग में कभी राग में
कभी फूल में कभी शूल में
ढूंढता हु तुम्हे ....तुम कहा हो
कभी मंदिरों में कभी मस्जिदों में
कभी पूजा में कभी प्रार्थना में
कभी आयतों में कभी नज्मों में
कभी भजन में कभी संगीत में
बताओ तुम कहा हो...
मधुमास में मृग के प्यास में
कभी गर्म दोपहर की धूप में
कभी ठंडी सर्द रातों में
कभी बारिश के बूंदों में
बताओ ... तुम कहा हो
प्रकृति की हर लय में
जल में थल में कभी नील गगन में
हर जगह तुम्हे ढूंढता हु
बताओ तुम कहा हो...-
कब किताबो के पन्नो से प्यार हो गया पता न चला
कब अल्फाजो का लफ्जों से इकरार हो गया
पता न चला
कब तेरे हाथो की चूड़ियों की खनक ने संगीत
की धुन सुना दी पता न चला
कब तेरे पैरो की पायल ने इस दिल को
घायल किया पता न चला
कब माथे की बिंदी ने प्रेम की अनुभूति करा दी
पता न चला
कब होठों की लाली ने चेहरे की लालिमा बढ़ा दी
पता न चला
कब तेरे कानो के झुमके देख मैं तुझ में घूम हो गया
पता न चला
कब तेरी मांग के सिंदूर ने मेरी उम्र बढ़ा दी पता न चला
कब तेरी आंखों की गहरी झील में डूब गया पता न चला
कब खूबसूरत एहसास हकीकत बना गया पता न चला।
कब तू मेरी और मैं तेरा हमसफर बना गया पता न चला-
थोड़ा हौसला सही कदम और साफ नीयत
इससे ज्यादा कुछ नहीं लगता मंजिल को पाने में
लगता है बहुत वक्त एक मकान को घर बनाने में
पर बेटो को घर में दीवार बनाने में वक्त नहीं लगता-
दो पल तुम्हे जिसको गिराने में लगे
जमाने उस घरौंदे को बनाने में लगे
बसे थे जो खयालों में कभी तस्वीर बन कर
उन्हीं जज्बातों को हम क्यों मिटाने में लगे
कहा से पा सकेंगे बच्चे ज्ञान
सभी मां बाप तो बस धन कमाने में लगे
बड़ी भीनी सी खुशबू आ रही है उन बागों में
कई जतन यहां जिनको बनाने में लगे
असल सबब तो जिंदगी से मिले
किताबे तो डिग्रिया जुटाने के लिए पढ़े।
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मां बाप बेटी सब पर कवि कविता कह गया
बस एक बेटा ही रह गया ,
बेटे की जिंदगी में अजीब पड़ाव आते है
फिर धीरे धीरे सब इससे दूर हो जाते है ।
16 से 21 की उम्र तानो में कट जाती है ,
21 से 26 तक जिंदगी उसे डराती है,
और फिर होती है उसकी शादी
उसे किसी केक सा काटा जाता है ,
एक अकेले लड़के को बेटे
और पति के हक में बाटा जाता है,
और फिर घर की जिम्मेदारियां उसे डराती है,
फिर आवारा से ये लड़का घर से
दफ्तर का रस्ता जानता है,
छोटा सा ये लड़का खुद को घर का बड़ा मानता है ,
इसकी जिंदगी की चकाचोंध सारी खत्म हो जाती है
और अंधेरा जरा घूम सा है,
बहुत चिल्लाने वाला लड़का अब चुप सा है ।
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इंसान दुनिया में आता है तब सांसे होती है पर नाम नही।
और जब दुनिया से जाता है तो नाम होता है पर सांसे नही।
ये सांस और नाम के बीच का जो सफर है
यही जिंदगी कहलाता है-
मिट्टी की खुशबू की
बात ही कुछ निराली है
हमारा बचपन क्या खूब था
जब हम मिट्टी के घरौंदे बनाते थे
जिसे हम फूल पत्तों और
मिट्टी के दीयों से ही सजाते थे
फिर भी हम सब
बहुत खुश हो जाते थे।
मिट्टी में पौधे लगाते थे
मिट्टी में खेल हम असली खुशी पाते हैं
और आज...
कहीं मिट्टी ना लग जाए पैरों में
ये सोचकर पैर उठाते हैं।
जलो या दफन हो सबका आधार में ही हूँ
मिट्टी हमारी अन्नदात्री मुक्तदात्री है
हमारा आदी भी अंत भी
जड़ भी चेतन भी
मिट्टी शून्य भी और अनंत भी
फूलो में शाखों में तने में, वृक्ष में
सबका अस्तित मिट्टी है।
मिट्टी हम सब की माँ
वतन की याद दिलाती
हम सबको गले लगती
मिट्टी की खुशबू की
बात ही कुछ निराली है
जो हमे हमारा बचपन याद दिलाती है-
क्यों दिये को हवा में रखा
कातिलों को वफ़ा में रखा
जिनके हाथों में प्यासा खंजर है
हमने उनको दुआ में रखा
तेरे आगमन से आंखे रोशन हुई
नाम तेरा जिया में रखा
जिस घड़ी मुस्कुरा के देखा था तूने
पल वही यादों के आगाज में रखा
जिसके सौ जुर्म माफ है
उसने हमको सजा में रखा।
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* नदी दिवस *
कोई कहता है इसे दरिया
कोई कहता है इसे नदिया
कितनो को इसने जीवन दिया
कितनो को जीने का जरिया
सबकी प्यास बुझाती
सबको गले लगती
सभ्यता की हो पहचान
लोग करते इसमें स्नान
पापो से तुम मुक्त करती
निर्मल मन को शुद्ध करती
गंगा जमना सरस्वती कितने है तेरे नाम
भारत की मुक्तकामी चेतना का द्वार
पर्वतों को आदर देती
पूर्वजो के मोक्ष का द्वार
है वेदों में जिक्र तेरा
अब नही आस्तित्व तेरा
कभी न रुकती कभी न थकती
शुद्ध निर्मल कल-कल बहती
धरती माँ के आंचल में
आगे बढ़ना ही जीवन है
नदिया हमे सिखाती।
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याद आता है वो बचपन
जब घर की मुंडेर पर चिड़िया का झुंड बैठता था
कोयल की मीठी आवाज
पंछियो की कलरव संगीत गूंजता था
याद आता है वो बचपन जब किसान बैल गाड़ी लेकर खेत को निकलता बच्चे पीछा करते बेलगाड़ी का
याद आता है वो कंचे ,वो सात पत्थरो का सितोलिया
वो गुली डंडा, वो ताश के पत्ते जो नोट से ज्यादा कीमती थे जिसमे मासूम बचपन झलकता था।
वो दोपहर को कुल्फी वाले कि घंटी वो गुड़िया के बाल वो गुब्बारे वाला वो चना चोर गरम वाले का शोर
याद आता है वो मिट्टी के दिये का तराजू बनाना वो छोटी से किराना की दुकान सजाना
वो टूटी चपल से गाड़ी बनाना
वो बारिश में भीगना कागज की नाव चलाना
वो रात को छत पे तारे गिनना
वो चंदा मामा की कहानियां सुनना
याद आता है वो बचपन का स्कूल,
वो मेला,वो सर्कस का खेल,माचिस की रेल
अब वो दिन नही,वो बचपन नही अब बचपन समझदार हो गया मशीन का वफादार ही गया , मोबाइल का गुलाम हो गया
सब रिश्ते नाते तस्वीरे धुंधली पड़ने लगी।
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