वो हमारे विद्वानों को नीच साबित
करते रहे
और हम शिक्षा के आभाव में ख़ुद
को अछूत मानते रहे
चमड़ा उतार कर पानी का थैला बना
दिया और फिर जूता
उसे चमार बना दिया
मिट्टी को सोना बना देने वाले कलाकार
कुम्हार बना दिया
गाय,भैंस से दूध निकाल कर दही बनाया
दही से घी और मट्ठा
उसे अहीर बना दिया
भेंड के रोंय निकाल कर जिसने कम्बल
बनाए, उन्हें गड़रिया बना दिया
हमने अविष्कार किए
उन्होंने अत्याचार किए
जो ख़ुद एक सुई ना बना सके
वो तथाकथित विद्वान् बन गए-
गैरबिरादरी में प्रेम और दहेज
के लिए गाँव में
बहु-बेटियों कों जलाते रहे
शहर सबको अपनाता रहा
सारे शहर को बुरा बताते रहे-
जातियों पर मोहब्बतों की दवा लग रही है
किसी ने कहा
गाँव को शहर की हवा लग रही है
उम्र भर ऊँच, नीच के संस्कार दिए जाते हैं
प्रेमी वापिस गाँव आ जाएं तो मार दिए जाते हैं
सबको बराबरी का अधिकार है, जनतन्त्र है
थाना है, थानेदार है,
ये बात क्या सच्ची लगती है
किताबों की बात है किताबों में अच्छी लगती है
जिसे बुद्ध ना बदल सके, विवेकानंद ना बदल सके,
अम्बेडकर ना बदल सके, वो क्या हमसे बदला जाएगा
जब ना रंग होगा, ना धर्म होगा, ना जाति होगी
सिर्फ इंसान को इंसान समझा जाएगा?
क्या किसी दिन, कोई ऐसा भी दिन आएगा?-
अनगिनत दीप जलें और एक रात
रौशन हो जाए तो क्या
यहाँ तो एक उम्र तन्हाई में गुज़री है
दो दिन और गुज़र जाएं तो क्या
एक साड़ी, एक शॉल, मिठाइयाँ और
कुछ पैसे तो आए हैं
बस बेटा घर ना आ पाए तो क्या
ख़ामोशियों और खुली हवाओं में भी तो
कितने मरे हैं
इस धुँध और शोर भरे माहौल में कोई शख़्स,
कुछ परिंदे, कुछ तितलियाँ, कोई पेड़
घुट के मर जाए तो क्या-
अभी नासमझ हो आप जो बोलना है मुझे सब बोलो
मेरे माथे पर है भंवर और क़िरदार में उलझन,
उलझती ही जाओगी चाहे जितनी गांठे खोलो
मुझसे बिछड़ कर रोओगी तुम बहुत मालूम है मुझे
उम्र भर के रोने से बेहतर है चार दिन रो लो
मैंने नीदें और जवानी करदी है सपनों पर क़ुरबान
तुम अंगड़ाईयाँ भरो और चैन से सो लो
मैं मतलबी अपने दिल का ना हुआ, तो क्या तुम्हारा होता
बंदिशें नहीं हैं कोई, जो तुम्हारा होना चाहे तुम उसके हो लो-
जो आज बर्बाद हैं मेरे लिए, उन्हें एक रोज़ ज़रूर
आबाद किया जाएगा
जो आज जैसे याद करते हैं मुझे, कल उन्हें वैसे
ही याद किया जाएगा-
हम इस धर्म के और उस जाति के हो जाते हैं
बस इंसान होकर इंसान नहीं बन पाते हैं
मोहब्बत के रास्ते मज़िल तक नहीं जाते हैं
ये घटिया बातें हम दिल को समझाते हैं-
मेरे होंठ ख़ामोश हैं पाबन्दियाँ समझते हैं
मेरी आँखें फ़रेबी हैं ये सब कुछ बोल देती हैं-
डरा डरा सा मंज़र था कितना भयानक नज़ारा था
जो क़ायदे से इंसान भी नहीं हैं उन्होंने भगवान बनकर
रावण को सड़कों पर जला कर तड़पा तड़पा के मारा था-