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Schooling and Post Graduation from Delhi
Born in Varanasi
A deep and ... read more
बंधन नहीं हैं समाज के दायरे, सवाल नहीं कारण ढूँढों
क्यूँ बने हैं किसलिए जरूरी, बवाल नहीं निवारण बूझो
बिना तटबंध तो जीवनदायिनी नदियाँ भी उत्पात मचातीं हैं
बाँध में बँधकर जल की उर्जा-उपयोगिता दोगुनी होती देखो
रिश्तों से परिवार, परिवार से समाज बँधा तो सभ्यता पनपी
नियम-कायदो के बल संस्कृति की जड़े सुदृढ़ होती समझो
उचित-अनुचित, मर्यादा-अनुशासन के संरक्षक हैं ये दायरे
बड़ों के आदर छोटों के मार्गदर्शन की यूँ होती संस्तुति जानों
रूढ़ियाँ न बने,वक्त संग बदलने चाहिए ये समाजिक दायरे
हर लिंग, हर वर्ग के बीच संतुलन की बँधी रस्सी को थामों
न लाँघों,न बाँधों, न दागी करो इन दायरों की लक्ष्मणरेखा को
मानते रहो, जागते रहो, सदा ही समाज की बेहतरी को लड़ो-
कितनी भी मुलाकातें कर लो किसी की फितरत न पहचान पाओगे
मुखौटों तले भी परतें, हर मुलाकात बनते और अनजान जाओगे
खूबी ज़हाँ की कुछ ऐसी बिन सीखे ही सब ही शतरंजी चालें चलें
चौकन्ना रहने पर भी अजी! जरूरत पड़ने पर खाली म्यान पाओगे
आँखें पढ़ लेने का गुमान बहुत मगर यहाँ तो काज़ल चुराने वाले हैं
आँखें मलने पर ही जानम! कड़वी हक़ीक़त ये कभी जान जाओगे
हमसफ़र बन चलते हैं खुशी-खुशी इक-दूजे पर जाँ निसार किए ता-उम्र
किसी हरकत पर यक-ब-यक उससे भी अजनबियत दरमियान पाओगे
पैमाना नहीं जरूरत हैं मुलाकातें हाँ! रवानगी इनसे ही ज़िंदगी की दोस्तों
तब्सिरा छोड़ मौज़-दर-मौज़ बहते रहोगे तो राह-ए-जीस्त आसान पाओगे
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झुकी-झुकी सी नज़र के बस मायने समझा दो
सही राह हैं हम या ग़लत , ज़रा मुगालते मिटा दो
इशारों को पढ़ने वाले तो बड़ी उम्मीद दे रहे
उनके इस इल्म़ की भी ज़रा सलाहियते जता दो
हया ये अच्छी है, अदा भी जँचती है पर बा-हद
सब्र को मेरे न यूँ उकसा ज़रा बगावतें सिखा दो
झुकाई ही क्यूँ हटा लेते तो हम न यूँ आस बाँधते
मेरे मासूम इंतज़ार को भी ज़रा रिवायतें सिखा दो
समझते हैं हम भी समझते हो तुम भी लेकिन
मुस्कुरा बस कभी प्रीत की ज़रा निकहतें महका दो
मौजें जो दिल में हिलोर रहीं बहकने लगी कोरो से
लर्जिशों को बिठा सनम ज़रा नफा़सतें सिखा दो
राज़दारियाँ भी अब और नहीं तेरी कैद में तड़पेंगी
सुनके दिल की सदा मेरी ज़रा मोहब्बतें अपना लो-
न दिल की हो रही न दिमाग की ही चल रही
समझ है बुझी-बुझी जिंदगी रेत सी फिसल रही
कारवाँ बेबसियों-बेजारियों का इस कदर बढ़ रहा
हिम्मत-हौंसलों की शमा बुझी राख में बदल रही
रोज़ लड़ती हूँ ज़माने से ख़ुद से हार जाती हूँ पर
उम्मीद-नाउम्मीद के दरमियान किस्मत मचल रही
ख़्वाब में आते हो मीठी-मीठी बतियाँ करते हो
पलकें खुलते ही ग़म-ए-फुर्कत से साँसे दहल रहीं
किस दम मोहब्बत अपनी सरे-आम करूँ बोलो
तेरी लुकाछिपी मेरी जंग को शिकस्त में बदल रही
कहाँ हो तुम कि अब ये उदासी जानलेवा हो चली
अश्क़ में डूबकर भी न मन की दुनिया बहल रही
आ भी जाओ कि अब और आवाज़ देगें न हम
इंतज़ार के इंतिखाब में कोरी ही मेरी ये ग़ज़ल रही-
आँसू कमज़ोरी नहीं मन साफ़ होने की निशानी हैं
छलक जाते देख दर्द पराया भी ये तो गुण इंसानी है
बह के आँखों से हिम्मत का बांँध तैयार करते हैं आँसू
धुँधली उम्मीद फिर सजाना आत्मबल की कहानी है
निकल आते हैं तो गुबार बह जाता है संग दिल का
वरना दर्द दबाए जीना तो मर-मर जीने सी नादानी है
खुशी में छलकते हैं दर्द में उमड़ते हैं कोई भेद नहीं
हर जज़्बात में ढली इन बूँदों में जिंदगी की रवानी है
जो रो लेता वो देख पाता हकीक़त को साफ़-साफ़
भ्रम में पड़कर धोखा खाने से बचना तो समझदारी है
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बदलता रहता सुरूर का पैमाना भी वक्त-बेवक्त
कल तक थी जिसकी ज़िद हुआ वो आज बेअसर
बूँदों से लिपट जाता मासूम बचपन जो भीग-भीग
आज उसी बारिश से काँप जाता शहर का शहर
वो जो मीठा-सा सुरूर था इश़्कियाना करवटों में
नींद के सूखे से बद-हाल ढ़लती उमर का सफ़र
घर बनाया अरमानों से, दूजे के महल से हार गया
तेरी हताशा देख मायूस हो रही खुशी की हर सहर
जुनूँ-ए-मोहब्बत तेरी खातिर बदनामियाँ ओढ़ लीं
अब जब साथ हैं तो हमसफ़र तू उधर मैं इधर
ऐसा नहीं हर सुरूर चढ़कर गिरे कुछ अपवाद हैं
सुरूर दौलत-शोहरत-ताकत का जानलेवा है मगर
सुरूर नेकी का जो चढ़े तो इंसानियत जीतती है
इंसाँ रहे न रहे, रहती दुनिया तक नाम रहता है पर
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दिल को दिल की राह मिलेगी ज़रूर
खु़दी से बड़ा हो जो बेख़ुदी का सुरूर
सवाल-मलाल सब धुल जाते हैं
अश्क पोंछने का निभाते रहो दस्तूर-
दिल, दिलबर, दिलरूबा से बाहर भी इक दुनिया है
दिल टूटने में ही नहीं अपनों से बिछड़ने में भी पीड़ा है
कभी तो क़लम को अपनी सच से भी अवगत करवाओ
लिखो न उस उन्वान पर जिसपर आंँसू भी तड़पकर रोया है
क्यूँ मारा निरपराधों को ? पूछते क्यूँ नहीं?
किसलिए ये नरसंहार ? पूछते क्यूँ नहीं?
कर रहे सियाह पन्ने खोखले एहसास जिलाने को
क्यूँ जला दिए जवां जज़्बात? पूछते क्यूँ नहीं
ख्वाब उनके भी थे जिन्होंने लिए थे अभी फेरे
सपने उनके भी थे जिन्होंने सजाने थे नवी डेरे
वो तो खुशनुमा आगाज़ की ललक में आए थे वहाँ
क्यूँ दर्दभरे अंजाम के घेर दिए अंतहीन घेरे
पूछो न उन हैवानों से ...कैसी विचारधारा है,?
भाईचारे का झूठा पाठ पढ़ा...बनाया चारा है
पूछो न कोई ,अरे कोई तो चार शब्द लिख दो
आतंकवाद का कोई धर्म नहीं पर धर्म पूछकर ही मारा है
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