Ritu Vemuri   (Ritu Tripathi (RITUSHI☀️)
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Joined 1 December 2019


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Joined 1 December 2019
26 APR AT 5:48

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20 APR AT 7:51

मतदान कीजिए
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न मैं जवान न किसान हूँ
न मैं वैज्ञानिक न राजनीतिक हूँ
न अन्वेषण न विश्लेषण कर पाती
न मैं अर्थनीतिज्ञ न व्यवसायिक संस्थान हूँ

छोटी ही सही पर हूँ
इस महान देश की नागरिक
निर्बल ही सही पर हूंँ
इस महान देश की शुभेच्छु
पर्वत में राई सा मेरा आकार
सागर मे बूँद सा मेरा योगदान

अपने मत का मोल जानती हूँ
सशक्त लोकतंत्र का तोल जानती हूँ
राष्ट्र निर्माण व विकास में मेरी भी भागीदारी
मत मेरा अनमोल मानती हूँ

शपथ है न छुट्टी न आलस्य करूँगी
कसम है न नींद का दामन धरूँगी
धूप में बरसात में,हर हालात में
मैं निकलूँगी घर से
और
अपना मतदान करूँगी

ऋतु वेमूरी स्वरचित

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18 APR AT 12:33

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18 APR AT 12:28

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17 APR AT 19:29

मर्यादा प्रतिमान योग्यता निजधाम
पुत्र आज्ञाकारी एक पत्नीव्रतधारी
प्रजावत्सल भक्तवल्लभ गुणधाम
सब अवगुण मिटा दो
हर हृदय अयोध्या बसा दो
मानवता का उगा दो अंशुमान
पुकारूँ मैं तोहे रघुराई अविराम
जय श्रीराम जय-जय सियाराम

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17 APR AT 12:09

निवेदन करूँ क्या तोहे  प्रभु
जानूँ न  क्या  सोहे तोहे प्रभु
तुम तो भावों से होते विभोर
मैं सुदामा! लाई भावनाओं के पोहे प्रभु
शबरी के तुम झूठे बेर भी खा लो
भांग-धतूरा,आक-केर भी खा लो
साग का वो आखिरी पत्ता लाई हूँ
मैं द्रौपदी! आशा है तोहे सोहे प्रभु
दाना  नहीं वो  तृप्ति बन  जाता
नेह दृष्टि जो  अन्नकण पा जाता
स्वाद संतुष्टि सिंचित आशीष पा
नैवेद्य तेरा भोग-प्रसाद कहलाता
हलुवा-पूरी,माखन-मिसरी तो हमारी श्रद्धा
छप्पन भोग भी हमारी आस्था की व्याख्या
निर्मल समर्पण ही आराध्य को ईष्ट है
प्रेम से अर्पण,विश्वास से ग्रहण नैवेद्य की दीक्षा
आराध्य-आराधक  का अनुपम सेतु है
फल-फूल,नैवेद्य करना प्रगाढ़ता हेतु है
नित्य नियम से एक पवित्र उत्सव होता
दिवस आरंभ का शुभमंगल सुकेतु है

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14 APR AT 17:46

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21 MAR AT 20:36

विश्व कविता दिवस

सबके मन हैं भाव भरे
सबके तन हैं घाव हरे
कोई चिल्लाता है कोई दबाता है
वक्त वो आया सबके ज़ेहन तनाव भरे
क़लम जो चलती है
मरहम में ढलती है
कारवाँ सा बनता है कविता में ढलता है
स्याही के धारों में एहसास डूबे उतरे
न कोई श्रोता है
न कोई वक्ता है
मौन ही कहता है,मौन ही सुनता है
शब्दों के सहारे असंख्य तम से उबरे
कुछ नहीं विशेष मेरी कविता में
कुछ नहीं अनिमेष मेरी कविता में
वही पुराना फितूर चढ़ता है,
वही पुराना दस्तूर निभता है
एकाकीपन में आशाओं के दीप बरे

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19 MAR AT 22:31

ठहरी हुई मुलाकात ज़ेहन में वो
दो दिलों ने छिप-छिप की थी जो
तिरगी के साए में नूर, ज़ज्बाती था
हया के पर्दे से, खींच लाया था जो

ख़ामोशी में पसरी थीं बेचैन सरगोशियाँ
झुके-झुके नैनों में थीं बेहोश मदहोशियांँ
न अल्फ़ाज़, न आवाज़, न कोई हरकत
डरी-डरी बगावत़ में थीं बेहिसाब खुशियाँ

चुपके-चुपके दिलों ने कोई सौदा किया
कँपकँपाती अँगुलियों ने कोई वादा किया
अल्हड़ उम्र का भोला सा वो पहला प्यार
बेदर्द ज़माने से बेखबर कोई मसौदा किया

अंजाम वही जो दुनिया को मंजूर था
मोहब्बत का मारा बेबस दिल रंजूर था
लम्हा-लम्हा मुलाकात का मन में बसा
एक अटूट रिश्ता.. टूटने पर मजबूर था

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19 MAR AT 19:49

कैसे शिकायत करें
तेरे ख़्यालों की धूप-छाँव से
अबोध बालक सी
जो अधरों पर मुस्कान ले आती हैं
खींच लेती
किसी चुंबक की भाँति
एकाग्रकर चित्त को
एक ही बिंदु पर ध्यान ले आती हैं
विरक्त कर जग से
केवल अपनी आसक्ति जगाती
मृदु कामनाओं की दे भेंट
नयनों में रक्ताभ ले आती हैं
मैं सिमट जाती
बिखरने के भय से
पर निखर जाती हूँ
काँधा झटक
बहकने के डर से
"धत्त पगली" कह
वास्तविकता में लौट आती हूँ

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