दिल, दिलबर, दिलरूबा से बाहर भी इक दुनिया है
दिल टूटने में ही नहीं अपनों से बिछड़ने में भी पीड़ा है
कभी तो क़लम को अपनी सच से भी अवगत करवाओ
लिखो न उस उन्वान पर जिसपर आंँसू भी तड़पकर रोया है
क्यूँ मारा निरपराधों को ? पूछते क्यूँ नहीं?
किसलिए ये नरसंहार ? पूछते क्यूँ नहीं?
कर रहे सियाह पन्ने खोखले एहसास जिलाने को
क्यूँ जला दिए जवां जज़्बात? पूछते क्यूँ नहीं
ख्वाब उनके भी थे जिन्होंने लिए थे अभी फेरे
सपने उनके भी थे जिन्होंने सजाने थे नवी डेरे
वो तो खुशनुमा आगाज़ की ललक में आए थे वहाँ
क्यूँ दर्दभरे अंजाम के घेर दिए अंतहीन घेरे
पूछो न उन हैवानों से ...कैसी विचारधारा है,?
भाईचारे का झूठा पाठ पढ़ा...बनाया चारा है
पूछो न कोई ,अरे कोई तो चार शब्द लिख दो
आतंकवाद का कोई धर्म नहीं पर धर्म पूछकर ही मारा है
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Schooling and Post Graduation from Delhi
Born in Varanasi
A deep and ... read more
मन द्रवित है सजल हैं नेत्र
आनंद की बेला में आया ये कैसा संवेग
वो यादें संँजोने गए थे,समेटने गए थे मधु-स्मृतियाँ
निरपराध बेचारे,गोलियों से छलनी हो,हुए वहीं ढेर
आतंकवाद का मजहब नहीं
पर मरनेवाले का तो होता है
वरना मारने से पहले आतंकवादियों ने
तफ़्तीश में यही प्रश्न क्यूँ पूछा है ?
न जात देखी, न भाषा पर किया सवाल
धर्म बूझते ही शोलों से धो दिया अपना मलाल
चीख सुनी नहीं आँसू दिखे नहीं उन नववधुओं के
रक्त की धार में श्वेत किया उनके मन का गुलाल
पत्नी-बच्चे, बूढ़े माँ-बाप अनाथ हुए
नर-पिशाचों की हैवानियत फलक छुए
क्या वो कभी सो पाएँगें,क्या वो कभी सामान्य हो पाएँगें?
नहीं,जिंदगियाँ उनकी अब बिखर गईं,तड़पती रहेंगीं जानेवालों की रूहें
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समर्पण भाव से होगा तभी संपन्न होगा
कर्म में हो निष्ठा, फल तभी उत्पन्न होगा
निरंतर प्रयासों से परास्त होती कठिनाइयाँ
एकाग्रता से चोट करोगे तभी कंपन होगा
धुन का पक्का, लक्ष्य का साधक यूँ ही नहीं
कंटक चुनते चलोगे मार्ग तभी सुगम होगा
कठिन है पर असाध्य नहीं स्वयं से कहो पहले
असफलता से न डरोगे प्रसन्न तभी दर्पण होगा
छाप छूटेगी दिलों पर संगदिल भी गले लगेगा
अश्रु की भाषा समझोगे तभी स्पंदन होगा
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आज फिर क़लम उठाई है कुछ कहने के लिए
भावों की पतवार लहराई है कुछ बहने के लिए
क़लम रूकी पहले ही पग पर, उन्वान न मिला
इमारत-ए-इबारत न बन पाई है रहने के लिए
शून्य में ताकती आँखों से ख़्याल भी मुँहमोड़ गए
एहसासों ने की बेवफाई है टीस ये सहने के लिए
हसरतों औ अरमानों को टटोल-टटोल ढूँढा मगर
यख़बस्तगी ने क़सम खाई है, न ढहने के लिए
कोशिश ज़ारी है ख़ामोश अल्फा़जों को जगाने की
जरूरी रोशनाई की रहनुमाई है जिंदा रहने के लिए
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सब्र जाने है मोहब्बत......हाँ भी और ना भी
इंतज़ार की इंतेहा से गुजरे रगबत हाँ भी और ना भी
कभी बचकानी सी हरकतें, कभी बगावत के तेवर
कुर्बानियों में पाए इशरत....हाँ भी और ना भी
उम्र गुजार दे फुर्कत में पर दो पल न यादों में जले बिन रहे
इल्ज़ाम ले ले दामन पर पर छींट न इक दिलबर पर लगने दे
कभी तारीफों के पुल, कभी शिकायतों के जेवर
वफादारियों पर लाए तोहमत.....हाँ भी और ना भी
बेकरारियों को सुकून का सबब भी बनते देखा है
आशिकी को इंसानियत का रब भी बनते देखा है
ज्यादा हैं प्यार के दरिया,कम हैं नफ़रत के कलेवर
इश्क़ की निगेहबानियों में है जन्नत...हाँ भी और ना भी
हाँ! बदलते देखा है पर इश्क़ अभी भी जिंदा है
जुनूँ फनां होने का आशिकों पर अभी भी ताबिंदा है
सब्र सिखाती है,जब्र सिखाती है,कब्र तक जाती है
रूमानियत में है रूहानियत...हाँ भी और ना भी-
उत्तर-दक्षिण,पूर्व-पश्चिम मकरराशि में
सूर्य के पदचिन्ह,
संक्रांति कहीं,बीहू कहीं,पोंगल कहीं,
उत्तरायण नाम भिन्न-भिन्न।
शीत की ठिठुरन से निकल हर
मनुज-पशु-पक्षी रहा मचल,
बैल दौड़ा,पतंगें उड़ा,रंगोली सजा,
तिल-गुड़ से लिख रहा शुभ दिन।।-
संक्रांतिकाल की बेला है आई सूर्य रश्मियाँ राशि मकर में हैं समाईं
शीत की लहरी जाने को है तिल-गुड़-चूड़ा की सुगंध नस-नस महकाईं
इस बार का पोंगल-बीहू-उत्तरायण कुछ अलग ही दिव्यता लिए आया है
मकर संक्रांति महाकुंभ पर प्रयागत्रिवेणी संगम अहो!आस्था ध्वजाएँ लहराईं
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ये समझ है जो मनुष्य को अलग बनाती है
समझ से काम लेनेवाले की जयकार होती है
बुद्धि और विवेक से काज होते सरल हैं
सोचसमझ कदम उठाने से मिलते सत्कार मोती हैं
समझ से काम ले व्यक्ति मुश्किलों को मात देता
समझ से काम ले व्यक्ति गूढ़ार्थ को सरलार्थ देता
समझ से व्यक्ति कहीं भी अपनी जगह बनाता
समझ जिज्ञासा जगा अन्वेषण व आविष्कार बोती है
जिव्हा पर संयम,न व्यर्थ अनर्गल वार्तालाप करना
समय की कसौटी पर समुचित व्यवहार करना
समझ बताती कब,क्या,कैसे और किससे कहें
कभी-कभी मौन धरना भी समझ की धार होती है
समझ एक मार्गदर्शक जो जीना सिखलाती है
समझ अंतर का दर्पण जो आईना दिखलाती है
समझ का फेर जो कोई भलाई में बुराई समझे
समझ की उल्टी चाल मान व अधिकार खोती है-