Ritu Shukla   (ऋतु शुक्ला)
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Joined 30 April 2018


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Joined 30 April 2018
5 JUN 2021 AT 15:33

इंतजार में में कोई कोना
पकड़ कर बैठी होगी
मेरी लेखनी...
उस लाल वाले
चाय के प्याले को
मेरे होंठों का स्पर्श
याद आ रहा होगा...
मुझे भी स्मरण हो चला
वो गहरी और शांत रातें
उंगलियों से फसी हुई कलम
प्याले से उठता सुंगधित धुंआ
जो मुझको किसी और ही
दुनिया का बना देता था
एक-एक घूंट कर
चाय का गले‌ में उतरना
मानों कोई आशिक
अपनी महबूबा को
बार बार आलिंगन करता हो
जब तक कलम
शब्दों को पिरोती तब तक
चिपकी सी रहती हो मुझे
मानो कोई प्रेमिका प्रेमी को....



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24 JUN 2018 AT 20:48

मूझे उसी मिट्टी मे
दफनाते आये बार-बार
जिसकी रक्षा करती आयी
मैं कभी दुर्गा बनकर तो
कभी झांसी की रानी बन
ऐसा कौन सा जघन्य अपराध
मै करती आयी आदिकाल से
जो पंख आने से पहले ही
कतरे जाते बेरहमी के साथ
क्यो पढा़या जाता मर्यादाओ
वाला पाठ हमे ही बार-बार
जबकि हवस के पुजारियो ने
बरबाद किया हमे बार-बार
मर्यादायें हमने नही हैवानो ने
तोडी़ है एक नही हर बार
हमे तो बस नसीहते देकर
चुप कराया गया है बार-बार
मुझे सी मिट्टी मे............

मेरी कलम से.... ऋतु शुक्ला










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2 JUN 2021 AT 20:07

सब कुछ तो बदल लिया
घर, आशियां,नाम और पहचान
बस बदल न सके
यादों की सुगंध
जो हमेशा इत्र की तरह
मेरे‌ तन मन को
ताजगी का अहसास
कराती रहती है....

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22 MAY 2021 AT 10:55



खुदगर्जी मे जीना
बडी सहूलियत से
लिए शराफ़त के नकाब
तो पहना देगी दुनिया
एक रंगीन ताज अनोखा
जीवन एक राग अनोखा

Formality मे
जीने मरने को तैयार
कसमे वादों की बौछार
मानो उड़ेलते हो सारा संसार
मौके पर दे जाएं बेदाग धोखा
जीवन एक राग अनोखा






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29 MAR 2021 AT 22:32

अभी अभी देखा मैंने चांद को
दूध सी चांदनी बिखराकर
अम्बर तक आ पहुंचा...
बिल्कुल तुम्हारे उजले
मखमली गालों की तरह
मेरा मन हो उठा मचल
तेरे कपोलों को अपने
गुलाबी हाथों से छू लूं
तुम शर्माना और बलखाना
कुछ जुल्फों को बिखराकर
थम जाएगा समां कुछ पल
बन्धनों का मोह भूल जाना
मै महसूस कर लूंगा
तुम्हारी सांसों में घुलते
सफेद रंगों को....




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25 MAR 2021 AT 21:49

सरकार के हाथों में कोरोना
ओ!भैया अब काहे को रोना...🙄

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19 MAR 2021 AT 16:35

सोने लगी हूं ...
पहले से ज्यादा अब सोने लगी हूं
मै मेरी तकिया और बैड है यहां
फिर क्यों है आंखों से नींद उड़ी
सपनों सा हसीं यहां कुछ भी नहीं
सोने लगी हूं.....
कापी-किताबों से कोई मतलब नहीं
चुपचाप पड़ी रहती हैं किसी कोने में
कलम की भी स्याही सूखी पड़ी
लिखने का मन अब कभी होता नहीं
सोने लगी हूं.....

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18 MAR 2021 AT 21:15

कितना आसान‌ है तेरे चरित्र को लांक्षित करना
खुद की मर्यादाओं से बंधे दर्द का क्या कुसूर....

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12 MAR 2021 AT 12:32

थोडा खुद सम्हाल लिया होता...
क्यों?.. मिथ्या में उलझे
खुलती डोर को थाम लिया होता..
क्यों?.. मांझा में उलझे
प्रेम को थोड़ा और ऊंचा कर लिया होता
क्यों?..कद में उलझे
एक और आलिंगन कर लिया होता
क्यों?... दोषों में उलझे
खुद को थोडा सहनशील बना लिया होता
क्यों?...जग में उलझे
संग थोडा और मजबूत कर लिया होता
क्यों?...जनप्रवाद में उलझे

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8 MAR 2021 AT 15:29

.........

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