इंतजार में में कोई कोना
पकड़ कर बैठी होगी
मेरी लेखनी...
उस लाल वाले
चाय के प्याले को
मेरे होंठों का स्पर्श
याद आ रहा होगा...
मुझे भी स्मरण हो चला
वो गहरी और शांत रातें
उंगलियों से फसी हुई कलम
प्याले से उठता सुंगधित धुंआ
जो मुझको किसी और ही
दुनिया का बना देता था
एक-एक घूंट कर
चाय का गले में उतरना
मानों कोई आशिक
अपनी महबूबा को
बार बार आलिंगन करता हो
जब तक कलम
शब्दों को पिरोती तब तक
चिपकी सी रहती हो मुझे
मानो कोई प्रेमिका प्रेमी को....
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🇮🇳🇮🇳🇮🇳 it's enough for identifying..☺️
🙏🙏🙏सभी क... read more
सब कुछ तो बदल लिया
घर, आशियां,नाम और पहचान
बस बदल न सके
यादों की सुगंध
जो हमेशा इत्र की तरह
मेरे तन मन को
ताजगी का अहसास
कराती रहती है....-
खुदगर्जी मे जीना
बडी सहूलियत से
लिए शराफ़त के नकाब
तो पहना देगी दुनिया
एक रंगीन ताज अनोखा
जीवन एक राग अनोखा
Formality मे
जीने मरने को तैयार
कसमे वादों की बौछार
मानो उड़ेलते हो सारा संसार
मौके पर दे जाएं बेदाग धोखा
जीवन एक राग अनोखा
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अभी अभी देखा मैंने चांद को
दूध सी चांदनी बिखराकर
अम्बर तक आ पहुंचा...
बिल्कुल तुम्हारे उजले
मखमली गालों की तरह
मेरा मन हो उठा मचल
तेरे कपोलों को अपने
गुलाबी हाथों से छू लूं
तुम शर्माना और बलखाना
कुछ जुल्फों को बिखराकर
थम जाएगा समां कुछ पल
बन्धनों का मोह भूल जाना
मै महसूस कर लूंगा
तुम्हारी सांसों में घुलते
सफेद रंगों को....
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सोने लगी हूं ...
पहले से ज्यादा अब सोने लगी हूं
मै मेरी तकिया और बैड है यहां
फिर क्यों है आंखों से नींद उड़ी
सपनों सा हसीं यहां कुछ भी नहीं
सोने लगी हूं.....
कापी-किताबों से कोई मतलब नहीं
चुपचाप पड़ी रहती हैं किसी कोने में
कलम की भी स्याही सूखी पड़ी
लिखने का मन अब कभी होता नहीं
सोने लगी हूं.....-
कितना आसान है तेरे चरित्र को लांक्षित करना
खुद की मर्यादाओं से बंधे दर्द का क्या कुसूर....-
थोडा खुद सम्हाल लिया होता...
क्यों?.. मिथ्या में उलझे
खुलती डोर को थाम लिया होता..
क्यों?.. मांझा में उलझे
प्रेम को थोड़ा और ऊंचा कर लिया होता
क्यों?..कद में उलझे
एक और आलिंगन कर लिया होता
क्यों?... दोषों में उलझे
खुद को थोडा सहनशील बना लिया होता
क्यों?...जग में उलझे
संग थोडा और मजबूत कर लिया होता
क्यों?...जनप्रवाद में उलझे-
गालियां भी एक प्रेम की भाषा है ...😝
ऐसा मुझे एक महान व्यक्तित्व ने बताया....😝-