क्या हासिल किया तुमने
सिवाये नरम दिल की बदनामी-
राहगीर तो थे हम भी
पर बदला तो तूने भी तो मजहब था
उफ ये बाते तुमको क्यों बताऊं
बातो बातो में भी तो तेरा ही मतलब था
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मैं सरहदे यादों की नहीं बनाता
मज़हब के नाम पर किसी को नहीं भड़काता
महज़ ये जो दूरी पाल ली है ना
सुकून से
बस वही दूरी का ख्याल अब नहीं आता
मैं हूं अकेला शायद यही समझ में नही आता
ये युग और परंपराओं से बाहर भी देखो कभी
मैं नितांत अकेला था और खुद को अकेले पाता
मैं सरहदे यादों की नहीं बनाता
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बर्बाद हो रहे हो थोड़ा थोड़ा शायद
सुना है बड़े व्यस्त रहते हो आज कल-
कुछ शब्दो का खेल रहा
कुछ अपनो का खेल रहा
मैं परिवर्तन चाहता था पर
कुछ अपनो मेल रहा
राह बदली थी मैने
पर कुछ राहों का भी मेल रहा
हम तो ठहरे साधरण से
पर उनको हर बातों में झेल रहा
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इक तीखा सा खत लिखना है
मुझको तेरी यादों का
माना दिन प्रति दिन तु बदली
अपने हर इक वादों सा
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विश्वास कहा खोजू मैं तुमको
खुद में या सबके अंदर
तुम सब तो हो इक राही
पर मन क्यों नहीं मानता तुम पर
विश्वास.............................!!— % &-
हम नई दुनिया की खोज
तुम्हारी शर्तो के हिसाब से क्यों करे
अंत तो सबका इक जैसा ही होगा ????-