श्रमण की शब्दोतराज में
मै आईना भी, चित्र भी
रंगों आफ़ताब गहराइयों में
इत्र भी सौमित्र भी...
मेरे उरो समंदर में
रत्नों मोती सौहार्द भी
स्नेह और संजीदगी की
उपहार और सत्कार सी
शब्द जैसे कलम का
कलम जैसे स्याह से
कविता की भाव हो
सोम भी, और क्षार भी
जितना है जरूरी
तुम मेरे यार से .-
कुछ पेड़ समंदर से जड़ों सींचते है
तो बादलों को निहारते है
अम्बर उनका अधिकार है
वो कर्मयोगी है वो ऊर्जा एक साधक है
उनके मन मस्तिष्क में
जीवन जय की पताका लहराते हैं...-
जीवन एक सहर्ष संवाद है
है नहीं दिवस एक जैसा, नित दिन
ख़्वाब ओझल न होगा
गर तुम एकाग्र मन से ठान लो
पीड़ाएं और क्षद्म ये मन की उलझन है
सहजता से हृदय को थाम लो
मेरी चांद ने सितारों में नहीं
धरा पे समंदर बोया है
जो जरूरत हो तो लहरों सा उफ़ान हो
सूर्य की क्षितिज पर श्वेत अश्व
रंग है अनेक पर दिखता है एक रंग
संगम शांत और उजाला सहज सा दिखता है
शीतलता और ऊर्जा भी एक फल दिखता है
रीत की विचार इतनी सी है प्रिय
जब कुछ भी न आए समझ
कृष्ण गीता को जान लो ....-
पढ़ी हमने
चिठ्ठियों का दौर का इंतजार
कितना सहज होता होगा
मां की पाती में लाड़ प्यार
पिता की पाती में गंभीर जिम्मेदारियां
बहन की पाती में अतुलाहट की ख़ुशबू
प्रेमिका की हथेलियों से निकली हृदय प्रेम की स्याह
सुनी हमने।
धैर्य और इंतजार
कितना सहज होता होगा न
और आज की दौर से अलग
महीना कल की बात थी
और आज
जहां पांच मिनट महीना लगता है
सेकंड में पाती का जवाब ज़िम्मेदारियों से विमुखता ...
मां पिता हृदय से बेचैन
सिर्फ एक दौर से बदल गया कैसे
फोन की असल जीवन में प्रभाव
फोन पर पढ़ी मैने
और वर्तमान को समझा
कैसे अतीत बेहतर रहा होगा
वर्तमान की आपाधापी से...-
🌿 "प्रकृति की परिभाषा" 🌿
(ग्रीक दार्शनिक और भारतीय ऋषियों की दृष्टि से)
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जो दिखता तीव्र सुगम और मूल्यवान सफ़र
जरा सी खामी भी नहीं है बर्दाश्त वहां
जिंदगी का तजुर्बा बैलगाड़ी से जहाजों तक इतना सा है
तुम धीरे चलो तो पीछे छुट जाते हो
तेज चलो तो सबको छोड़ जाते हो
मानविकी जंजाल अभी धागों को सुलझा नहीं पाया
ख़बर में कोई सफ़र को सुलझा नहीं पाया
कैसे होगा ! अनंत तक अनेकानेक ब्रह्मांडो का सफर
एक दिन की जिंदगी कोटि बरस चलने को स्वप्न बनाया
रीत की एक सलाह सुनो तुम जनता
इंसानियत जो जीवंत हो , जड़ता से विमुख
प्रकृति का सहचर वहीं ब्रह्माण्ड नाप पाया .!-
समन्दर का संवाद
मिलता नहीं सप्त सागर
धरा की रेखाएं जो मिले
तो तुम काटते गए
नदियां पाटती रही भूमि वसुंधरा
बांटती नहीं तुम्हें सेतु को स्वीकृति रही
तुम तो नोचते रहे उसके जीवन का हिस्सा
पहाड़ों ने तुम्हें छांव दिया
बारिश और मॉनसून का अमृत सा
उसने कैद की हिम जो तुम्हे धार दे
तुम तो उसे पिघलाते रहे अपने स्वार्थ में ...
वस्तुततः मेरे प्रश्न और उत्तर सापेक्ष नहीं
संवाद व्यथित आक्षेप नहीं
प्रकृति आदर्श हो प्रणम्यता
संवाद हो शिखर की श्रेष्ठता ।-
जो ख्वाहिशें बचपन की थी बड़े ही जाने की
होता कोई रास्ता सफर से लौट जाने की
अक्सर सवाल आता है, मिराज जो दिखता है
जिंदगी, शख्स उलझता जाता है उम्र के साथ
कोई बचपन जिम्मेदारियों का बोझ उठाता है
रहता कोई जादूई घड़ी जो लौट जाती समय में
समंदर जो पर्वतों को जाता, बारिशें उगती धरा से
पेड़ लटकते होने आकाश में और हम तितलियों सा इतराते
होता कोई फरिश्ता सब कुछ कर जाने की...
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हृदय की खातिर संवाद लिखता हूं
शब्द लिखता हूं किताब लिखता हूं
आमद-ओ-रफ़्त समय का हिस्सा है
संजीदगी गुफ्तगू जो मेरे तेरे दरम्यान
ये सोचता बतियाता मुजाकरात लिखता हूं।
समाज आईनों की बस्ती है
मिलते हैं देखते है, दिखा खुद को दूसरे में जाते है
तुम अलग सा हिस्सा हो बंदिशें सहज गुनगुनाते है
चलो दीवार को तोड़ते है, सेतु से भावनाओं को साधते है
गोया मेरा ख्वाब अब तुम से जुड़ने लगा
चलो मुसाफिर अब शब्दों शहर का अख़बार लिखता हूं
मेरी लेखनी रंगों की पृष्ठिका
तुम्हारी प्रीति की धार में प्यार लिखता हूं
मै जनता बना भावनाओं को प्रजा की
चलो आज मैं तुम्हे सरकार चुनता हूं ।-