समन्दर का संवाद
मिलता नहीं सप्त सागर
धरा की रेखाएं जो मिले
तो तुम काटते गए
नदियां पाटती रही भूमि वसुंधरा
बांटती नहीं तुम्हें सेतु को स्वीकृति रही
तुम तो नोचते रहे उसके जीवन का हिस्सा
पहाड़ों ने तुम्हें छांव दिया
बारिश और मॉनसून का अमृत सा
उसने कैद की हिम जो तुम्हे धार दे
तुम तो उसे पिघलाते रहे अपने स्वार्थ में ...
वस्तुततः मेरे प्रश्न और उत्तर सापेक्ष नहीं
संवाद व्यथित आक्षेप नहीं
प्रकृति आदर्श हो प्रणम्यता
संवाद हो शिखर की श्रेष्ठता ।-
जो ख्वाहिशें बचपन की थी बड़े ही जाने की
होता कोई रास्ता सफर से लौट जाने की
अक्सर सवाल आता है, मिराज जो दिखता है
जिंदगी, शख्स उलझता जाता है उम्र के साथ
कोई बचपन जिम्मेदारियों का बोझ उठाता है
रहता कोई जादूई घड़ी जो लौट जाती समय में
समंदर जो पर्वतों को जाता, बारिशें उगती धरा से
पेड़ लटकते होने आकाश में और हम तितलियों सा इतराते
होता कोई फरिश्ता सब कुछ कर जाने की...
-
हृदय की खातिर संवाद लिखता हूं
शब्द लिखता हूं किताब लिखता हूं
आमद-ओ-रफ़्त समय का हिस्सा है
संजीदगी गुफ्तगू जो मेरे तेरे दरम्यान
ये सोचता बतियाता मुजाकरात लिखता हूं।
समाज आईनों की बस्ती है
मिलते हैं देखते है, दिखा खुद को दूसरे में जाते है
तुम अलग सा हिस्सा हो बंदिशें सहज गुनगुनाते है
चलो दीवार को तोड़ते है, सेतु से भावनाओं को साधते है
गोया मेरा ख्वाब अब तुम से जुड़ने लगा
चलो मुसाफिर अब शब्दों शहर का अख़बार लिखता हूं
मेरी लेखनी रंगों की पृष्ठिका
तुम्हारी प्रीति की धार में प्यार लिखता हूं
मै जनता बना भावनाओं को प्रजा की
चलो आज मैं तुम्हे सरकार चुनता हूं ।-
तुमने पूछा
हां हमारा रिश्ता
न है प्रहेलिकाएं सी
नहीं दिखावटी पुष्पदस्ता ।
जो है तुम हृदय की केंद्रक
कोशिका मै मेरे अंतः में प्रभावित डी एन ए
मैने लामार्क और डार्विन को पढ़ा है
शेक्सपियर सुकरात और जयशंकर की नारी श्रद्धा....
मैने ढूंढा सबमें तुमको
हां वहीं अलकेमिस्ट की सफ़र में
प्रेम निसंदेह जीवन को पाने सा है
खुद में खुद को पाने जैसा है
मैने वेदांत को विज्ञान से जोड़ा है
तुम्हारे प्रेम ने ही मुझे अभिज्ञान से जोड़ा है
तुम्हारी प्रीति बेशक मुझमें कोमलता है
जड़ता नहीं शिखरता है
तुम मुझसे दूर तो नहीं
हां मुझमें हीं हो
बेशक मेरे शब्द तुमसे रूठंगे नहीं
मै लिखूंगा तुमको मनाऊंगा
मेरी अधूरे शब्दों के अक्षर तुम्हे सजाऊंगा
चांद बादलों से निकलो मेरे समंदर में ठहर जाओ
जो कल सूरज तुम बन के निकल आओ.....-
कलम रूठता है स्याह से
अधूरे चांद बादलों की पगडंडी पे चला
अक्षर शब्द के मोती तो भावनाएं हीं धागे है
बेखबर है ज़माना मुझसे
मेरे शब्दों मेरा समय निहारता है
अतीत, वर्तमान और भविष्य
मेरे भावनाओं को साधता है ।
है कोई वृक्ष, है कोई समन्दर
या पर्वत जो रूठता है हवाओं से
नहीं ! शायद कोई भी नहीं
पर हां वो नाराज़ है खुद से
जो इतना तो जरूर परिवर्तित हुआ है
जो बस स्थिर है विमर्श को अभिलक्षित है
जो जान सके तो रुई का फाह सा
या कांटों सा पौध बबूल या नाग़फनी....-
बिला-तकल्लुफ़ सा है इश्क़
ये आईना भी है ज़िन्दगी भी
उर की उम्मीदी में शराफ़त शहर है ये
ख़्वाब तुम सफ़र भी दिल्लगी भी ...
-
आईना आत्मीयता की
ख्वाब सारे प्राप्त करो हे शक्ति
रंग ख़्वाबों के तुम स्वीकार करो
मुस्कुराहटें हो तुम्हारी संजीदगी
विदुषी सृजन अध्यात्म दर्शन की
सहजता और विनयता
स्मितियुक्त हो तुम
ममता प्रत्येक जीवन के लिए
अपराजिता अप्रतिम
सुविनिता शालीन कवयित्री
आदर्श और यथार्थ की लेखनी
स्वर सौंदर्य सी ख्याति
अपने अंतः की किरदार सुनो
तुम हो एक सहज स्वरा
ज्ञान और धर्म तुम शान हो शक्ति .-
कुटिल विमर्श नहीं यथार्थ लिखो
हे भारत तुम समाज लिखो....
(शेष अनुशीर्षक में...)-
सुनो कहानी
कविता तुम भी
लेख तुम्हारी
कलम की धार मेरी हृदय है
स्याह मेरी स्नेह है
ख़्वाब मेरी बतकही
शब्द सभा में यार मेरी हृदय है
जिंदगी को सफ़र से मुलाकात है जरूरी
मेरे हृदय की हृदय में
हर एक ख्वाब हृदय है
चलो हमराह काफियां मिलाएं
रंग को सजाएं
समन्दर सा हो जाएं
अब धरा भी समन्दर
समन्दर भी अम्बर
सबर को सबर
या ख्वाब की सफर में
आज और कल भी अर्ज़-गुज़ार हृदय है ।-
हरी पत्तियों सी उंगलियां मुझे थामने लगी
जैसे मानों प्रकृति की ममता हाथों में उतरने लगी है
मरहम भर जाता है, मेरी बतकही भाने लगी है
जैसे पेड़ों की टोली में चर्चा मेरी होने लगी है ।
फूलों की किलकारियों में चहकती कलियों की अतः ध्वनि
गमले की पाटली में स्नेह सा रंग नजर आने लगी है ।-