Ritesh Rohit   (राज़, मेरे अल्फ़ाज़)
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Joined 7 November 2019


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Joined 7 November 2019
23 FEB 2022 AT 9:49

बड़ी मशक्कत से बनती है शख्शियत यारों,
कोई ऐसे ही नहीं मसीहा बन जाता!

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19 JUL 2021 AT 22:08

उस सुभह की तलाश है, जो इस काले अंधेरे से बचाले,
इस महामारी में जो ढह गई, उस सिस्टम से बचाले,

प्राण वायु की तलाश है, जो इन साँसों को बचाले,
चिताओं में जल रही है, इन लाशों को बचाले,

मेरा सब्र कहीं खो गया है, इस बेसब्री से बचाले,
मौत हुई बेकाबू है, अब कोई इस मरघट से बचाले!!

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22 MAR 2021 AT 1:13

ज़्यादा नहीं तो कम भी नहीं है,
ज़िन्दगी में ग़म भी नहीं है,
क्या बताए कैसी कमी है,
तुम नहीं तो कुछ भी नहीं है,

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23 NOV 2020 AT 0:03

सोचता हूँ तुझसे क्या रिश्ता है मेरा,
यूँही नही तेरी सारी ज़िद मान लेता हूँ।

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2 OCT 2020 AT 22:34

ग़लत को सही सही को ग़लत समझती है सरकार,
कितनी निक्कमी कितनी निठल्ली है सरकार!😢

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5 SEP 2020 AT 20:21

तुम्हारे ज़हन में छिपा है कौन,
काशी! जो लिखा है बतादे कौन,

दर्द इश्क़ मायूसी तो लिखते है सब,
तू बता तेरी कहानी का किस्सा है कौन!!

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5 SEP 2020 AT 19:25

मेरे सफ़र में काँटे बिछा दे ए ज़िन्दगी,
मख़मली रास्तों की मुझे आदत नहीं है,

ये दुनिया है जो झूठे सपनें दिखाती है,
मुझको इन सपनों की आदत नहीं है,

बड़े मीठे है शब्दों के बाण लोगों के,
मुझको इतने मीठे की भी आदत नहीं है,

लगती है भीड़ बहुत ख़ुशामद की यहाँ,
और मुझको चापलूसी की आदत नहीं है,

"राज़" इस मेले की आदत है कुछ ऐसी,
यहाँ इन्सान बनने की किसीको आदत नहीं है।

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25 AUG 2020 AT 22:02

ढलना दुबारा है,
सफ़र मैं हूँ और मंज़िल ने पुकारा है,

रास्तों से बाबस्ता हूँ दूर तक जाना है,
शाम का इशारा है घर जल्दी आना है,

लौट कर खाली हाथ मायूस नहीं जाना है,
ढलते हुए सूरज से रोशनी चुरा लाना है,
शाम का इशारा है ढलना दुबारा है।

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20 AUG 2020 AT 20:05

जब बारिशें बरसती है तभी तो ये धरती हँसती है,
ज़िन्दगी खुशनुमा बादलों सी गरजती है,

ये खलियानों में चहकती है, पेड़ो में मचलती है,
तूफान उठाकर ये बेहिसाब बरसती है,

बूंदों में सपनें सजाती है ये सपनों को सींचती है,
गर्म बेज़ार जीवन मे ये ठंडी फुहार लाती है।

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20 AUG 2020 AT 12:16

मैं जो चाहता हूँ वो मुहब्बत मिलती क्यूँ नहीं,
ज़िन्दगी से कुछ राहत अब मिलती क्यूँ नहीं!

तड़पता हूँ अकेला मैं और ख़ुद से पूछता हूँ ये
ज़रा ठहरे यहाँ कारवाँ वो मंज़िल मिलती क्यूँ नहीं।

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