हर मर्ज़ की दवा है सिर्फ तेरा मुस्कुरा भर के देख लेना।
कई बरस गुजर चुके हैं मुझे तबीबों का शहर छोड़े हुए।।-
*कोरे कागज़ पर जब गिरी उनके आसूँओं की चंद बूंदे...
फिर हमने वो भी पढ़ा जो उसने लिखा ही नहीं...*-
जो दरम्यां अधूरी रह गईं थी कभी पूरी वो बात करने...
इस फिराक़ में आए थे तेरे शहर तुझसे एक मुलाकात करने...-
खो जाऊं तेरे ख्वाबों-खयालों की दुनिया में इस तरह...
के फिर हक़ीक़त की दुनिया मुझे झूठी सी लगने लगे...-
अपने ही शहर में मैं रहता था किसी गुमनाम शक्स की तरह...
फ़कत उसने ही मिल कर मुझसे मेरी पहचान करवायी है...-
मशरूफ हो गए हैं वो घर की जिम्मेदारियों को निभाने में कुछ ऐसे...
मुद्दतों बाद उसे मुझे भूल जाने का एक बहाना मिल गया हो जैसे...-
कभी वक़्त से वक़्त मांग कर एक मुलाकात करो मुझसे।
तुमसे मिलकर मैं खुद के बारे में और जानना चाहता हूं।।-
ये जो तुम्हारी चेहरे की अदा-ए-हयादारी है...
दरअसल इनमें मेरी निगाहों की भी कुछ हिस्सेदारी है...-
"तेरी तस्वीरों को ही देख-देख कर करने लगा हूं शायरियां इन दिनों।
जाने उस वक़्त क्या बात होगी, जब पहली दफा तुमसे मुलाकात होगी"-
"न चाहते हुए भी मेरे यारों का शक और गहरा देती हो...
महफ़िल में तिरछी नजरों से देख मुझे जब तुम मुस्कुरा देती हो..."
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