आखिर कौन हो तुम,
अजनबी हो मगर
जाने पहचाने से लगते हो,
गैर हो मगर फिर भी ना जाने क्यों
अपने से लगते हो,
दूर हो तुम मगर फिर भी
मेरे पास ही लगते हो,
तुम्हारा जिक्र न करना चाहू,
मगर फिर भी अनचाहे जिक्र की तरह
मेरी बातों में शामिल हो जाया करते हो तुम,
दुआएं पढ़ना आता नहीं मुझको,
मगर फिर भी ना जाने क्यों मेरी
इबादत में दुआ की तरह शामिल हो
जाया करते हो तुम,
मेरे मन के अन्तर्द्वन्द में ना जाने कितने
अनगिनत सवाल के रूप में उभरते हो तुम,
और मैं उन सवालों के जवाब ऐसे ढूंढ़ती हूं जैसे
मरू में कोई मृगतृष्णा ढूंढ़ता है,
तुमको लिखने बैठती हूं तो सोच में
पड़ जती हूं , कि आखिर क्या लिखूं,
किन किन अक्षरों को पिरो कर शब्दों की
कौन सी माला बनाऊं,
अब तुम हिं बतलाओ,
मेरी उलझन सुलझाओ कि
आखिर कौन हो तुम...
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