नि:स्वार्थ भावों के झरनों से ही सज जाते हैं स्त्री के सब भूमंडल
उसे नहीं चाहिए पुरुष कवच और पौरूषत्व कुंडल-
⛑Member of Indian Red Cross Society
#Humanity #Health #friendship
✍ writi... read more
स्त्री जो है...
आँख मिचौली खूब खेलती है
कभी रोशनी से
कभी अंधेरे से
कभी रोशनी को छू लेती है
कभी अंधेरों में रोशनी टोह लेती है-
टूटते तारे को देखकर,
क्या इच्छा मांगेगा वो...?
जिसकी आत्मा ही टूट फूट गयी हो...
पौरुष पतवार से कब तक नाव चला लेगा वो
जब भावों का अभाव ही स्वभाव बन गया हो-
ना मैं तुमसे कोई उम्मीद रखूँगी दिलनवाज़ी की
ना तुम मेरी तरफ देखो गलत अंदाज़ नजरों से
ना मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाये मेरी बातों में
ना जाहिर हो तुम्हारी कशमकश का राज़ नजरों से
Some lines
keep wandering in the ocean of soul....
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तुम जो कहो वही गुनगुना दूंगी
लड़की जो हूँ
फिर, कुछ तो मैं भी सुना दूंगी...-
स्त्री हो, या इस्त्री हो
हर एक अकड़न सिकुड़न को
सीधा सपाट सरल कर ही देती है
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आज ये तेज से भरी तेजस्विनी है
स्वयं से स्वयं तक...
आज एक स्त्री खुद के लिए जो सजी धजी है-
सुनो लड़कियों...
अगर पढ़ ही गयी हो
तो आगे बढ़ो...
यूँ काग़ज़ के भंडार भरकर
घर पर कुंठित मत रहो
अपनी आत्मीयता को पहचानो
अपना अस्तित्व संरक्षित करो-
सुनो लड़कियों...
बहुत हुआ महिला सशक्तिकरण
पहले आत्मरक्षण की बात करो
दूसरों को परमेश्वर बनाने से पहले
खुद की तुम भगवान बनो
अंधकार की छत्त तले दबने से पहले
खुद का आलीशान आसमाँ बनाओ
चाँद और चांदनी बहुत बन चुकी
अब सबल स्त्रीशक्ति का सूरज चमकाओ
बहुत लहरा लिया कोमल काया का आँचल
सुगठित प्रगाढ़ देह बन तुम खुद ही हिमालय बन जाओ
लोगों की मन की बात सुनने से पहले
अपनी प्रबल करतल ध्वनि सुनो
कब तक निर्भर रहोगी तुम दूसरों पर
आत्मनिर्भर बन तुम संपूर्ण बन जाओ
'औरत, औरत की दुश्मन' इसको झुठला कर
नारीत्व आत्मसम्मान की बात करो
कब तक मैली मानसिकता में रहोगी
अपना स्वस्थ माहौल तुम खुद बनाओ
कब तक दूसरों से सम्मान की अपेक्षा करोगी
पहले खुद को काबिल-ए-तारीफ बनाओ
कब तक अपमान तुम सहोगी
खुद को सर्वप्रथम सुदृढ बन सम्मानित करो
मूक बनकर कब तक खड़ी रहोगी
उन्मुक्त विचारों से संगठित बनो
शिक्षित सशक्त और स्थिर होकर
स्वतंत्र स्वरचित इतिहास रचो
अहम, ईर्ष्या त्याग कर
स्त्री शाश्वत तुम बन जाओ-
दिल क्या चाहता है
सुकून शाश्वत सा
अंतर्मन आत्मविश्वास भरा
जिससे पुलकित हो उठे
मन मन्दाकिनी और ये प्राण धरा
हृदय क्यूँ न होगा ये हरा भरा
तुम भीतर खुश
बाहर क्यूँ नहीं होंगे
निरन्तर इंद्रधनुष-