जहां खिलौने नहीं
खेल बिकते हैं,
एक देश
मदारियों का देश है।
उसकी मिट्टी
अब नहीं उगलती सोना,
निगल जाती है
पसीना खिलाड़ियों का,
जहां बंदर और डमरू के
मेल बिकते हैं।
ये देश
मदारियों का देश है
यहां खिलौने नहीं,
खेल बिकते हैं।
-
सुना है
सितारे चमकते हैं
दुपट्टे पे तेरे
और मैं,
जुगनू के लिबास में
सूरज छिपाए बैठा हूं
सीने में
बचाके बारिश से।-
कभी जब याद आती है तू
तो भूलना
भूल जाता हूं मैं।
ये याददाश्त भी
क्या क़माल है
कि काम की बातें
याद नही रहतीं
और तू है
कि मिटती नही ज़हन से।
कि क़यामत हो
तो निजात मिले।
-
और अहसान न कर, इश्क़ की दुहाई देकर
ग़ुर्बत में ज़िंदगी, ख़ुद अहसान लगती है ।।
-
जब कुछ नही था
तो था बस
शब्द।
जब कुछ नही होगा
तो होगा बस
शब्द।
शब्द की एक उम्र होती है
जो 'कुन' और 'फ़ना'
के पार फैली है।
-
सारी भूलें भुलाकर मेरी, वो लोरियां गाती है।
सुकून की नींद आती है, जब माँ सुलाती है।।
-
कैसे होता है कि,
घुटन को सह जाना
बिना ईश्क़ के रह जाना
तूफ़ान के घोड़ों का खड़े रहना
पानी का ज़िद पर अड़े रहना,
बस हो जाता है
ग़ैर-ज़रूरी इरादों के
पूरे होने जैसा।-
क़ाश!
वक़्त के
दरवाज़े होते।
पिछले दरवाज़े से
निकल जाता मैं
पीछे वक़्त में
और रह जाता,
एक लम्हे में अटककर
उस लम्हे में,
जिसमे थे बस मैं
और थी तुम
और था कोई नही।
फिर हम रोक देते
क़त्ल होने से
एक मासूम सा अरमान।
क़ाश!
वक़्त के
दरवाज़े होते।
-
"तू मेरी कविताओं में होते-होते
मेरी कहानी हो गई।
मैं, लय में बांधता रहा तुझे
और तू एक उपन्यास-सी
बह गई।
कभी
किसी किनारे मिलो
तो रुक जाना
कुछ अल्फ़ाज़ लौटाने हैं तुम्हें
जो मिले थे तुमसे
उन अल्फ़ाज़ की
ठीक जगह नहीं है
मेरे पास।
मुरझा गए हैं वक़्त के साथ।
तुमसे मिलें
तो शायद फिर खिल उठें।"
-
"अचानक,
कल रात
माँ की बहुत याद आई।
सुबह उठकर
दरवाज़े की
कुण्डी से लगा
अख़बार उठाया,
तो पता चला,
पिछली रात
इस मौसम की
सबसे
सर्द रात थी
और मैं,
रज़ाई लेना भूल गया था।"
-