स्त्री-पुरुष विरोध का सम्बन्ध,
विमर्श होना तय है ,तभी तक,
रूका रहता है,जब तक साम्य,
बना रहता है,अहम के उभार,
नियन्त्रण में बने रहे जब तक,
जैसे किसी खिडकी में लगी ,
चिटकनी पूरी खिडकी को रोके,
रखती है , साम्य के अन्त तक,
अहम के उभार तक , साम्य और
विमर्श का संघर्ष है स्त्री-पुरुष!-
इस नाचीज़ को नायाब कर दे !
Kuch log kitaaben padhkar jina sikhte he,
Kuch log jikar kitaaben likhte he...!!-
इन्तजार करती आँखों की गहराई,
उन आँखों की आस में डूबी प्यास,
एक गहरे अन्तहीन खालीपन भरी,
नितान्त उदासीन सा अहसास देती,
एक टक शून्य में यूँ निहारती रहती,
जैसे खामोश पहाड़ो में प्रतिध्वनित,
आवाजों के शौर से अचम्भित होते,
जब हम सुन अपनी ही ध्वनि स्पष्ट,
ऐसे प्रतिदृष्टित होती झांकती हर दृष्टि,
जैसे देखते देखते हर नजारा पल में,
दृष्टि से हो जाए ओझल हर जाए,
बस कोरी नितांत कोरी दृष्टि अचम्भित..
इन्तजार करती आँखों की गहराई !-
शायद पहली दफा है तुम्हारी,
ये हया का पर्दा; शर्म की लाली..
खता क्या पता ; यही जफा है मेरी,
नाजुक परों पर निशां आ गए है ..!-
चाँद जमीं पर हो या
रहे आसमाँ पर; बाखुदा रोशनी,
तो भरपुर देता है !
कहाँ वो फर्क करता है,
मिरे दागों में; तमगों में !-
मैं जीवन जिता तो काम कब करता ,
इसलिए ताउम्र काम करता रहा शायद !
जीवन के बिना कर्म और कर्म के बिना जीवन ?-