मिलता था तुझसे तो बस तुझे पाने की चाह में
सितम है तुझसे मिलकर हर दफ़ा बिछड़ा हूँ मैं-
इंदौर
तेरा इश्क़ जगजाहिर पर तेरे नाम पर पहरा है
इश्क़ इतना स्याह नहीं तेरा नाम बेहद गहरा है-
ये मोहब्बत को इबादत में बदलना चाहता था मैं
क्यूं तुझको दिल में महफूज़ रखना चाहता था मैं
फ़िर सजदे से मेरे हाथ गिर गए तो उठा न पाया
क्यूं राह के पत्थर को ख़ुदा बनाना चाहता था मैं
बिछड़ जाना तो एक रिवायत है इश्क़ की 'राज़'
क्यूं इस रस्म-ओ-राह को बदलना चाहता था मैं-
मलाल ये नहीं कि उसे इतने दिनों बाद देखा
मलाल तो ये है कि मेरी आँखें क्यों भर आई-
मेरे लिखे को पढ़ने की तेरी आरज़ू है मग़र
मेरे लफ़्ज़ों को सुनने को तेरी ख़्वाहिश नहीं-
शांत बैठा हूं और मन में तेरे ख़्याल चल रहे हैं
मन बैठ रहा और सिगरेट के बादल उड़ रहे हैं-
चार अल्फ़ाज़ क्या सुने मेरे अश'आर के इन हवाओं ने
कम्बख़त अपना आपा खो बैठीं और बारिश होने लगी-
शाम को थक जाते हैं दिन भर भागते हुए
यह तनख्वाह तो तन खा गई मेरे यारों का-
इतनी मेहनत से एक तख़्त न बना पाया मैं
ये जो लकड़ियां हैं इनसे एक ताबूत बना दूं-