रद्दी काग़ज़   (रद्दी काग़ज़)
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मैं जिसके लिए लिखता हूं वो पढ़ता नहीं रद्दी काग़ज़ नाम मेरी हकीकत बयां करता है;
इंदौर
Joined 18 May 2020


मैं जिसके लिए लिखता हूं वो पढ़ता नहीं रद्दी काग़ज़ नाम मेरी हकीकत बयां करता है;
इंदौर
Joined 18 May 2020

शिकायतें बहुत थीं पर बताकर क्या करता
चाहत थी ये अपनी ज़िंदगी तेरे नाम करता

आज़ाद किया उस कबूतर को कैद से मैंने
अब उस बंद कैदी का भला मैं क्या करता

नज़रों में बस एक चेहरा सपने भी बस तेरे
ये बीमारी तो नहीं फिर इलाज़ क्या करता

वो मशवरा देता है खुश रहने की मुझ को
तेरे होने से भला इन गमों का क्या करता

पनाह मिली नज़रों में अनजान शख़्स को
अब मैं उन मुरझाई आंखों का क्या करता

इसे गम न कहो अब तो ये हैं रोजगार मेरा
बिन गम के ज़िंदगी बसर कैसे क्या करता

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मैं चाहता तो बतला देता गुजरी आपबीती मगर
मुझसे खामोशियों का दरवाज़ा तोड़ा नही गया;

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लौट आया ये सोचकर वो मुझे रोकेगा
रोया नहीं मैं कोई देखेगा क्या सोचेगा

जला दी बहुत सी गज़लें लिखकर मैंने
डर गया कोई पढ़ लेगा तो क्या सोचेगा

मिटा देता हूं तकिए से आंसू के निशान
गुजरी हर रात इम्तेहान में यही सोचेगा

जागता हूं रात भर बुझा कर चराग को
जलता चराग कोई देखेगा क्या सोचेगा

कहते हैं लोग जाऊं तेरी शादी में मैं भी
सोचता हूं तू मुझे देख कर क्या सोचेगा;— % &

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काश हो अजनबी सी मुलाक़ात तुमसे
मिलाऊं हाथ और हाल पूछ लूं तुमसे;— % &

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हो रही एहसासों की कमी मुझमें
भरा है आंसुओं का सागर मुझमें

मुझे कहता है अब हर कोई बुरा
जैसे तेरे सारे ऐब भर गए मुझमें

तेरी आखिरी बातें याद करता हूं
देखता हूं कोई मर गया है मुझमें

मैं तन्हाई पसंद इंसां न था कभी
तुम इस कदर घर कर गई मुझमें

तेरी शक्ल दिखाई दे अब हरदम
और कुछ देखूं जज़्बा नहीं मुझमें;— % &

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झुकी हुई नजरों से बंद आंखों तक
एहसास मरते नहीं मौत आने तक

जुगनू से पूछो कोई दिन का दुःख
बाहर निकलते नहीं रात आने तक

जम गया मुकद्दर पत्थर बन गया मैं
मैं यहीं रहूंगा तेरे नदी हो जाने तक

चाहत है डूब मरूं बिन बहे आंसू में
रुका हूं इनका समुंदर हो जाने तक;

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उम्र गंवाई कुछ ख़्वाब टूटे फिर वो शख़्स छूटा है
ये लुटेरों का शहर है यहां हर इक शख़्स झूठा है;

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सपने और हकीकत में बहुत फासले मिलेंगे
बातें पहाड़ों की होगी और हम जमीं पर मिलेंगे,

जो कहते थे अबके मिले तो सीधे गले मिलेंगे
जानते हैं हकीकत में तो सिर्फ हाथ ही मिलेंगे,

आरज़ू थी मुलाकात आंखों में आंखें डाल मिलेंगे
कहां पता था झुकेंगी नजरें और बस दिल मिलेंगे,

वो तेरी चाय के झूठे कुल्हड़ नहीं संभाल पाया मैं
मैने तो सोचा था दोबारा भी हम चाय पर मिलेंगे;

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इतना स्याह है मुकद्दर की परछाई का रंग
जो भी मेरे पास आया वो ओझल हो गया;

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टूटा हूं बिखरा हूं और जलता रहा
मैं इंसान हूं या रद्दी काग़ज़ कोई;

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