रचना शुक्ला   ("रचना")
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Joined 23 September 2021


Joined 23 September 2021

सुकून हो न हो,पसंद करो या न करो
कभी -कभी ही बातें , चंद करो या न करो
खुला रखना मगर ये दर, पलट के आएँगे
रोशनी राह धरो, या चिराग़ मंद करो

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चलो नाराज़गी परे रख दी,और कहो
और ये सादगी परे रख दी ,और कहो
शौक नकली गुलों का है उन्हें, चलो माना
सुबह ने ताज़गी परे रख दी, और कहो


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पता है हमको सब, पर तुमको आते सिर्फ़ उलाहने हैं
ख़ामोशी से आँखों -आँखों मारे कितने
ताने हैं
देरी दूरी दो ही शिकवों पर अटके रह जाते हो
एक ज़िंदगी, सौ सौ उलझन, कितने फ़र्ज़
निभाने हैं
-------रचना

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सारी दुनिया में घूमने दो उसे
नशे में अपने झूमने दो उसे
ज़मीन ढूँढेगा जब पाँव उखड़ जाएँगे
अभी अकड़ के सितारों को चूमने दो उसे

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बहुत दिनों से कुछ कहा ही नहीं,ऐसा नहीं
कहने सुनने को कुछ रहा ही नहीं, ऐसा नहीं
मुस्कराते हुए मिलेंगे, देख लेना कभी
ग़म मिला ही नहीं ,सहा ही नहीं, ऐसा नहीं
--रचना

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हम भी कहाँ की बातें, किसको सुना रहे हैं
बहरों के शहर में हम, क्यों गुनगुना रहे हैं



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सुनते रहेंगे सब कुछ, जो ज़िंदगी कहे
लिखते रहेंगे सब कुछ, जो ज़िंदगी कहे
जीने का तरीका या नाराज़गी ख़ुद से
करते रहेंगे सब कुछ, जो ज़िंदगी कहे?


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दरिया गुज़र रहा था, और हम ठहर गए थे
फिर कुछ ख़बर नहीं और, पहरों पहर गए
ख़ामोश थे किनारे, लहरों में शोर था
ना पूछ आज कितना, गहरे उतर गए

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कहाँ चाँद तारों में रहने लगे हो
इधर है, उधर कोई जन्नत नहीं है
हवाओं में उड़ते बहुत हैं जो उनकी
ज़मी पे कहीं कोई इज्ज़त नहीं है



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