चाय पीने बैठ जाती हूं कही तो,
चार दोस्त बना लेती हूं,
फिर चाय खत्म,
दोस्ती खत्म,
तू कभी गयी नही जहन से,
तेरी दोस्ती ने ,
चाय की लत लगा दी-
मै हवा हूँ,फ़िज़ा हूँ,
जमी की नही...
जिद इतनी कि,
कही बिक रहा हो तो,
पुरखों की सम्पत्ति ,दाँव पे लगा दू।।
सिद्धान्त इतने पक्के कि,
एक पल में मेरा हो रहा हो,
चारदीवारी के दरमियाँ।।
मैं उस लम्हे, उसे ठुकरा दू
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बहुत सी शिकायतें है अनकही,
कुछ दर्द भी बेहिसाब,
किसी दिन बताऊँगी उन्हें बैठा कर?
नही!!!!
मुस्कुराउंगी,
और पास से निकल जाऊँगी
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बाज दफा यू हुआ मेरे साथ
दिल की करते करते,
फूलो की उम्मीद भी नही थी,
और किताबो के हिस्से भी,
सूखे पीपल के पत्ते आये
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जीवनसंगिनी कोई और बनने जा रही है,
मुझसे कह रहा था,
तुम्हारा विचार बताओ,
मेरी चुप्पी के बाद
हँसता हुआ बोला,
मैं परख रहा था,
मैं बेसुध सी बैठ गयी,
अब इस घड़ी,
परख कर करोगे भी क्या?-
वो तालिबान सा बेख़ौफ़,
मैं अफगानिस्तान की फ़िज़ा,
मैं आत्मसमर्पण करना चाहती हूं
कितना घमंड था मुझे उसका?
अपनी गलतियों पर हंसना चाहती हूँ
ऐसे कौंन देखता है अपनी मौत को,
टकटकी लगाए?
आँखों मे आखरी बार उसे क्यों भरना चाहती हूँ?
हथियार नये दे दो उसे,
पास आ रहा हैं वो काफ़िर,
मैं एक ही बार में, उसके हाथों से मरना चाहती हूँ,
वो तालिबान सा.....
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माना, बेहतरीन रचना हूँ ईश्वर मै आपकी,
हर रिश्ते में अपनी जान लगाती हूँ,
फिर भी हर बार तोड़ी जाती हूँ,
आजमायी जाती हूं,
गलत सामने वाला हो तब भी,
मै चुप रहूं,
ये समझाई जाती हूँ,
फिर भी आपको लगता है,
मै आपका अंश हूँ?
तो में इस बात पर सवाल उठाती हूँ
-
अब ,भर चुकी हूँ मैं ,झूठे रिश्तों से,
जानती हूँ हर शख्श की सोच,
हाँ मगर, हँस के मिलती हूँ,सबसे,
क्योंकि दौर मेरा जब आयेगा,
हर कोई बिना बात करीब भी आयेगा,
तब मैं अपनी बात कह पाऊंगी,
सवाल जवाब सब मेरे होंगें,
सबकी बोलती बंद कर जाऊँगी,
रिश्तों को ताक में रख कर,
मैं सबको उनकी औक़ात दिखाऊंगी-