Ravishankar Nishchal नवोदयन   (✍ रविशंकर 'निश्चल')
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Joined 30 March 2018


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पुरुष हर रोज रोते हैं; आंसू यदा-कदा ही बहाते हैं, इसलिए पुरुष का आंसू बेहद कीमती है। यह या तो तबाही पर निकलता है या असीम खुशी में। 'अति सर्वत्र वर्जयते' कह जाता है, पुरुष का आंसू भी अति होने पर ही फूटता है, उससे पहले कदापि नहीं।

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आज फिर कुछ पन्ने लिखे गये हैं 
आज फिर इतिहास दर्ज हुआ है

आज फिर कुछ लोग जीत गये हैं 
आज  फिर  कोई  हारा  हुआ है

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मय के नशा का जानें मयखाना जाने वाले 
हम तो तुम्हारी आंखों में डूबे रहे उम्र भर।

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जब मैं नहीं रहूंगा
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जब मैं नहीं रहूंगा
तब कुछ लम्हें रहेंगे
तुम्हारी यादों में समायें।

जब मैं नहीं रहूंगा
तो एक डायरी रहेगी
और उसमें रहेंगी कुछ कहानियां
कुछ कविताएं तुम्हारे नाम।

जब मैं नहीं रहूंगा
उन दिनों में भी प्रेम-पत्र बचे होंगे
जिन्हें कभी प्रेषित न कर सका
जबकि लिखे जाने के बाद वे तुम्हारी ही संपत्ति थे।

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तुम्हें लाइलाज़ बीमारी हुई थी,
सुना है तुम्हें भी मोहब्बत हुई थी

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कोई हो रहनुमा जो बतलाये कि कहां जाएं हम?
कहो कि सफर जारी रखें या घर लौट जायें हम?

कोई इंतजार करता होता तो ठीक भी होता
कहो परिंदा नहीं जहां, वहां क्योंकर जायें हम?

गुलाम और आज़ाद में फर्क नहीं अब साहब
गुलाम कैद में, खुले में भी कैदी बताए जायें हम।

तुम्हें लगता होगा डर सुनसान इलाकों से
चाहत हमारी कि घने जंगल में दफनाये जायें हम।

इक रोज़ का वादा करके आये नहीं जाने वाले
ख्वाहिशें ऐसी कि बस इंतज़ार करते जायें हम।

वो बेवफाई करके भी वफादार बने रहे ताउम्र
वफादार होकर भी कमबख़्त कहलाये जायें हम।

चलो उनकी खातिर जिंदगी दान ही सही
बस कोई बता दे कब-कहां जाकर मर जायें हम?

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वो जो निकलते थे लश्कर के साथ कभी,
आखिरी गुज़रे तो किसी कान तक दस्तक न हुई।

© रविशंकर 'निश्चल'

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मेरा डर
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मुझे डर लगता है
हर उस कोने से जिसमें एकांत काटता हो।
शांति से डर नहीं लगता,
डर लगता है शांति से पहले आये बवंडर से।

मुझे डर नहीं लगता अपने होने से,
उससे क्या डरना जो स्वयं डरा हुआ हो।
मुझे तो उस हवा से डर लगता है जो बस चलती है बिना परवाह किए मौसम की, खुदगर्ज।
बसंती हवा से डर नहीं लगता मुझे।

✍️ रविशंकर "निश्चल'
27.11.2024

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वार्तालाप: नाव, दरिया और मंजिल
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सुनो
बारिश का मौसम है
एक नाव बनाते हैं,
दरिया में जिसे बढ़ाते हैं
ताकि मंजिल पर अपनी पहुंच सकें।

रहने दो,
मेरी मंजिल तुम
मेरी नाव और दरिया भी तुम
फिर मुझे अपने तक क्यों नहीं ले जाते?

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यो चायं भिक्खवे! कामेसु काम सिखाल्लिकानुयोगो
हीनो गम्मो पोथज्जनिको अनरियो अनत्थसंहितो...!
(पालि)

खग्ग विसाहिउ जहिं लहहुं, प्रिय तेहि देसहिं जाहुं।
रण दुब्भिक्खें भग्गाइं, विणु जुज्झें न बालहुं।।
(प्राकृत)

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