Ravishankar Nishchal नवोदयन   (✍ रविशंकर 'निश्चल')
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Joined 30 March 2018


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वार्तालाप
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सुनो
बारिश का मौसम है
एक नाव बनाते हैं,
दरिया में जिसे बढ़ाते हैं
ताकि मंजिल पर अपनी पहुंच सकें।

रहने दो,
मेरी मंजिल तुम
मेरी नाव और दरिया भी तुम
फिर मुझे अपने तक क्यों नहीं ले जाते?

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यो चायं भिक्खवे! कामेसु काम सिखाल्लिकानुयोगो
हीनो गम्मो पोथज्जनिको अनरियो अनत्थसंहितो...!
(पालि)

खग्ग विसाहिउ जहिं लहहुं, प्रिय तेहि देसहिं जाहुं।
रण दुब्भिक्खें भग्गाइं, विणु जुज्झें न बालहुं।।
(प्राकृत)

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तुम डॉक्टर को बुला लो तो ठीक रहे शायद
एक घुटन है कि मेरा दम निकला जा रहा है

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अंतिम वाक्य
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मैं खुश रहता हूं, मगर
इसे मेरा अंतिम वाक्य मत समझ लेना,

कष्टप्रद ही होगा मेरा अंतिम सत्य
जो अक्सर छिप जाता है, मेरी मौन मुस्कान से।

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शुष्क हर मौसम हवाएं रहीं
बदरी भी थीं कि गायब रहीं
पानी को तरसता रहा पंछी
आंखें जबकि बरसती रहीं

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वाणी में मिठास नहीं
आसमान में बरसात नहीं
कैसे ठहरें दरख्तों के नीचे
जहां पंछियों को छांव नहीं

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वार्तालाप: इष्टदेव

सुनो!
तुम्हारे मन-मंदिर में
इष्ट जो कोई बसता है
अभीष्ट क्या उससे पाती हो?
या यों ही बस इठलाती जाती हो?

बसाया तुमको था
मन-मंदिर-घर बनाया था
वक्त-बेवक्त तो आते-जाते थे
निशा-कथा नहीं कभी बतलाते थे
ध्यान इधर आया है या कोई माया है?

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हमारे शब्दों को,
चलो आजाद करते हैं।

एक सुबह सुहानी
एक शाम की कहानी
बयां करते हैं
चलो आजाद करते हैं।

एक विहंगम पंछी
हमारी भावनाओं में कैद पंछी
उसे आज आसमान करते हैं
चलो आजाद करते हैं।

सदियों का बुना ताना-बाना
या कि कोई कैदखाना ?
नया कोई विचार करते हैं
हमारे शब्दों को,
चलो आजाद करते हैं।

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तुम्हारे प्रपंचों का असर नहीं होने वाला
मैं जम गया हूं, टस-से-मस नहीं होने वाला

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जब समय आयेगा तो कसीदे भी गढ़ेंगे,
फिलहाल तो वक्त बगावतों का है।

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