ravi tiwari  
2.3k Followers · 437 Following

read more
Joined 3 January 2017


read more
Joined 3 January 2017
14 JUN AT 22:28

दिल तब तक नहीं रोता....
बिखर कर टूट जाती है हिम्मत पर उम्मीद बांधे रखती है
लेकर सहारा अंजान किस्मत का आंखें जागी रहती है
हारती हर रोज़ वो एक ख्वाहिश कई छोटी जीत के आगे
हताश कोशिश रात को सोकर फिर सुबह साजे रहती है,

वो एक आख़िर में भी मिलेगा मौका... रोज लड़ता वह खुद से
बनकर नासमझ सा मुसाफिर... रोज चलता वही पे
कि पा सकेगा अपनी ख्वाहिश.... विश्वास... बेहरहम नहीं इतना
जीत आखिर में तो मिल सकेगी मुस्कुराकर कहता है खुद से,

हाँ वो लम्हा भी आखिर आया जब कोशिश को ठहर जाना था
भरोसा डर को दबा चुका था मानो सब बदल जाना था
सुइयां दिन को काट रही थी बस एक शाम के खातिर
रात ....फिर से‌ वैसे ही गुजरी जैसे वो... अनजाना था,

ना गुस्सा ना गम ना शिकायत....बस मुस्कुराहट.
.....हर कोशिश पे हस रही थी
कुछ न कह सकी ये आँखें......बस ख़ामोशी
......बिन आशूं के रो रही थी।

-


30 MAY AT 22:12

"वक्त चुराना चाहते है......"
इस भागदौड़ भरी जिंदगी को थोड़ा उल्लू बनाते है
कुछ छुपकर-छुपाकर थोड़े पल बचाते है
रुकना कहा ही आता है ये जो वक्त सिर्फ मेरा नहीं
खुद से ही झूठ बोलकर खुद को हंसना सिखाते है,

ये शोर मचाता दिन...वो गुनगुनाती रातें
कुछ गैरों- कुछ अपनों से...वो अनगिनत बातें
वो सुन रहे है वहीं जो अक्सर सुनना चाहते है...
ये जो चेहरा है आईने में हम कहा ही दिखा पाते है,

सबके सामने है हम...पर खुद को छुपाते है
ये जो वक्त सबमें बांटा है...कुछ पल चुराना चाहते है
डूबकर के मानो अपनी सोच की गहराई में
इस अकेले सुकून में सब केह पाना चाहते है,

वो अनगिनत शिकायतें, क‌ई ख्वाहिशें , फरमाइशें
ना कह सके ना पढ़ सके इस दिल की नुमाइशें
हूं हज़ारों की भीड़ में पर कोई कान मेरा नहीं
एक डायरी से मिलकर इसको सब बताना चाहते है।

-


25 MAY AT 16:30

शाम ढल गई ......सब्र हार गया
ग़लती जिसकी थी....
उसे इश्क़ कहते हैं

-


23 MAY AT 12:05

"वो पहचानी सी दस्तक"
गौर करना कोई आया है,
कुछ पुराना सा अहसास लाया है..........

बदला पहनावा. .. मौजुदगी की महक उसकी
आँखों पर ठहरने की वो जिद्दो-ज़हत उसकी
बुलाया उसने मुझे....फिर भी उसी अंदाज़ में
उन पुरानी यादों को वो फिर समेट लाया है,
हम ना मिले.. ..सिर्फ वक्त गुजरा है
जहां भी ढूंढा...गैर-मौजुदगी का पहरा है
दी जब भी दस्तक..
ना पा सके एक दूसरे की आहट....कभी
दिखाकर ज़िद.... फ़िर से उसने
मेरा दरवाजा खटखटाया है,
ना मिलना तो इस दोस्ती का एक किस्सा है
पर उम्मीद रखना भी इसका ही एक हिस्सा है
की अहमियत सहुलियत इन सब
कि हमें फ़िक्र कहा
शायद एहसास गहरा था कि
एक आवाज़ पर ..... वो लौट आया है।

-


29 JAN AT 0:38

"मैं और शख्शियत"

क्या हकीकत जिंदगी की... यहाँ वक़्त पल रहा है
जाने इन रस्तों पे...वो बेख़ौफ़ बढ़ रहा है
क्या इल्ज़ाम, कितनी शिकायतें
मेरे गुनाह गिन्ने की फरमाइशें
सहेजकर पुरानी किताबों सा
वो बीता दर्द... रख रहा है,

गर तकलीफों में फर्क करना
कहां इसे समझ आ रहा है
ये आईना है कहां खुद से ही देख पा रहा‌ है
जोड़-बेजोड़ सी ना जख्म बांटने कि चाह मेरी
कभी खड़ा खुद के लिए...
तो कभी खुद से ही लड़ रहा है,

बदले फिर अंदाज़ मेरे कहने-सुनने के
भूलकर हर शख्सियत वो बस चल रहा है
दिल में ना रख कर मेरे..कर्ज किसी की बातों का
बगैर साये के शब्दों में वो बस ..... जी रहा है।

-


19 JAN AT 23:04

रिश्तों की डोर में कहीं एक नाम थे हम
खास एक दूसरे के मगर अंजान थे हम
एक हिज्जक जो जुड़ी थी फासला दूरियों की उम्र में था,
वो इससे बेखबर थे कि कितने बेनकाब है हम

हां जो ये वक्त की फरमाइश.. ये खींच लाता है
हो कैसी भी दूरियां मगर ये पास लाता है
कि टकराए तो सही...वो सोच...जिसने बांटा था हमें,
तोड़कर बंदिशें सारी नये धागे जोड़ पाता है

फिर एक पहलु बनेगा जो सब कुछ संग लाएगा
बनाकर पुल कई यादों का सब कुछ जोड़ पाएगा
मिलते हैं दोनों अब ऐसे...''की बेख़बर ख़ुद से ही अंजान हो"
गुजरा वो वक्त भी मानो अब सब भूल जाएगा।

बेपरवाह बढ़ती... नजदकिया ना हैरान है हम
वक्त दे कितनी भी खरोंचे ना परेशान है हम
की मजबूर खुशियाँ हो गई है साथ मेरा निभाने को
कभी खोया था वजूद मैंने मगर अब खास है हम।

-


8 JAN AT 23:14

कोई पहुंचने को है,
कोई निकलने को
सुकून कहते, बिखरे सन्नाटे को
ये अँधेरा .. हर वक़्त है जनाब
ठोकर दौलत ने मारी..
फिर इंसाफ बिकने को।

-


4 JAN AT 23:14

क्या लिखुं या क्या पढूं
क्यों ये नाराज़गी है मुझसे
खामोशियां में खोया दिल
ये आदत बोहत बुरी है,

शोर गुंजता चारों तरफ
की आवाजें उलझी हुई है
नहीं सुन सका फिर भी एक लफ्ज
सोच वीरान मेरी हुई है,

कुछ देखने की कभी
जरा दिखाने की कोशिश करी है
नहीं सुन पा रहा हे ये दिल
तो कुछ पढ़ाने की कोशिश करी है
पर..ये बेवक्त की बेमर्जियां
नहीं मैं बेहताश खुद से
थाम कर ये उंगली
ये कलम फिर से जुड़ी है,

मगर मैं
क्या .... लिखुं या क्या पढ़ूं....
क्यों ये नाराज़गी है मुझसे
खामोशियां में खोया दिल
ये आदत बोहत बुरी है।

-


25 DEC 2024 AT 21:47

एक खबर को खबर नहीं
की बेख़बर.... हुआ किस्से,
नाराज़गी हुई क्यों है
या नाराज़ है कौन किस्से,
चुपकर के दोनों बैठे है
मन में कई सवाल लिये,
इंतज़ार...बस अहम टूटने का है
कम्बखत बैठे है ....
खुद ही जवाब लिए।

-


15 NOV 2024 AT 8:27

गर तकलीफ फिर से हुई
ये बात नई नहीं है,
वक्त ने फिर अकेलापन चाहा
ये हालात भी नए नहीं है,
खामोशी में सब कुछ दबा लेना
ये अब आदत सी है मेरी,
मुस्कुराकर.... आंसू अपने छुपा लेना
अब पहचान मेरी यही है।

-


Fetching ravi tiwari Quotes