"मैं और शख्शियत"
क्या हकीकत जिंदगी की... यहाँ वक़्त पल रहा है
जाने इन रस्तों पे...वो बेख़ौफ़ बढ़ रहा है
क्या इल्ज़ाम, कितनी शिकायतें
मेरे गुनाह गिन्ने की फरमाइशें
सहेजकर पुरानी किताबों सा
वो बीता दर्द... रख रहा है,
गर तकलीफों में फर्क करना
कहां इसे समझ आ रहा है
ये आईना है कहां खुद से ही देख पा रहा है
जोड़-बेजोड़ सी ना जख्म बांटने कि चाह मेरी
कभी खड़ा खुद के लिए...
तो कभी खुद से ही लड़ रहा है,
बदले फिर अंदाज़ मेरे कहने-सुनने के
भूलकर हर शख्सियत वो बस चल रहा है
दिल में ना रख कर मेरे..कर्ज किसी की बातों का
बगैर साये के शब्दों में वो बस ..... जी रहा है।
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NiTiAn(electrical engineer)
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रिश्तों की डोर में कहीं एक नाम थे हम
खास एक दूसरे के मगर अंजान थे हम
एक हिज्जक जो जुड़ी थी फासला दूरियों की उम्र में था,
वो इससे बेखबर थे कि कितने बेनकाब है हम
हां जो ये वक्त की फरमाइश.. ये खींच लाता है
हो कैसी भी दूरियां मगर ये पास लाता है
कि टकराए तो सही...वो सोच...जिसने बांटा था हमें,
तोड़कर बंदिशें सारी नये धागे जोड़ पाता है
फिर एक पहलु बनेगा जो सब कुछ संग लाएगा
बनाकर पुल कई यादों का सब कुछ जोड़ पाएगा
मिलते हैं दोनों अब ऐसे...''की बेख़बर ख़ुद से ही अंजान हो"
गुजरा वो वक्त भी मानो अब सब भूल जाएगा।
बेपरवाह बढ़ती... नजदकिया ना हैरान है हम
वक्त दे कितनी भी खरोंचे ना परेशान है हम
की मजबूर खुशियाँ हो गई है साथ मेरा निभाने को
कभी खोया था वजूद मैंने मगर अब खास है हम।
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कोई पहुंचने को है,
कोई निकलने को
सुकून कहते, बिखरे सन्नाटे को
ये अँधेरा .. हर वक़्त है जनाब
ठोकर दौलत ने मारी..
फिर इंसाफ बिकने को।
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क्या लिखुं या क्या पढूं
क्यों ये नाराज़गी है मुझसे
खामोशियां में खोया दिल
ये आदत बोहत बुरी है,
शोर गुंजता चारों तरफ
की आवाजें उलझी हुई है
नहीं सुन सका फिर भी एक लफ्ज
सोच वीरान मेरी हुई है,
कुछ देखने की कभी
जरा दिखाने की कोशिश करी है
नहीं सुन पा रहा हे ये दिल
तो कुछ पढ़ाने की कोशिश करी है
पर..ये बेवक्त की बेमर्जियां
नहीं मैं बेहताश खुद से
थाम कर ये उंगली
ये कलम फिर से जुड़ी है,
मगर मैं
क्या .... लिखुं या क्या पढ़ूं....
क्यों ये नाराज़गी है मुझसे
खामोशियां में खोया दिल
ये आदत बोहत बुरी है।
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एक खबर को खबर नहीं
की बेख़बर.... हुआ किस्से,
नाराज़गी हुई क्यों है
या नाराज़ है कौन किस्से,
चुपकर के दोनों बैठे है
मन में कई सवाल लिये,
इंतज़ार...बस अहम टूटने का है
कम्बखत बैठे है ....
खुद ही जवाब लिए।-
गर तकलीफ फिर से हुई
ये बात नई नहीं है,
वक्त ने फिर अकेलापन चाहा
ये हालात भी नए नहीं है,
खामोशी में सब कुछ दबा लेना
ये अब आदत सी है मेरी,
मुस्कुराकर.... आंसू अपने छुपा लेना
अब पहचान मेरी यही है।
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कम्बख्त... ये चाह बनी क्यों ऐसी
वक्त-बेवक्त.... बदल जाती है
बेवजह ही... जलन की अपनी मर्जी में
हारकर... मर जाती है,
उठकर..... हर नई सुबह में
आती शाम से... सहम जाती है
सपने देखती वो हर बार पूरे
मगर पाने को..... तरस जाती है,
एक चाभी जो रोज खूंटे पर लटकी
उतरकर......फिर वही टंग जाती है
ज़िन्दगी अब आंखों से गुजरती
ख्वाहिशें.........घर पहुंचकर दब जाती है,
मिलने की आस खुद हमने मारी
अब यादें....तस्वीरों में बदल जाती है
जब सोचते तो घड़ी का काटा चुभता
तकलीफें.....थकी नींद में गुम जाती है,
कम्बख्त... ये चाह बनी क्यों ऐसी
वक्त-बेवक्त.... बदल जाती है
बेवजह ही... जलन की अपनी मर्जी में
हारकर... मर जाती है।
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वो ढूंढते है...सूरज को
बड़े पहाड़ों में,
कही अंतहीन किनारों में,
कभी शाम की लालिमा में,
तो कभी....ऊंची इमारातों के गलियारे में,
वो तलाशते है ...सुकून को
कहीं दूर नजरों में,
एकान्त की मजारों में,
कभी कुदरत की इबादत में,
तो कभी...शोहरत की हिफाजत में,
कि रुककर.....ये कलम
मुझसे भी....अब पूछती है,
क्यों ना चाह...तुझे कोई
क्या यही तेरी तिश्नगी है,
" बस कुछ किताबें
काम की बातें
और वही चेहरे
फ़िलहाल...यही है मेरी ज़िंदगी में "-
दूर रहकर रिश्ते निभाना
ये आदत.....जो तुझसे मिली है
इश्क पाकर...उसमें खो जाना
ये हकीकत...जो तुझसे जुड़ी है,
गुजरा ये वक्त...मिली कई यादें
दोहराते ख़्वाब...और दोहराते वादें
हां डगमगाने को थे
कई बार....हम निभानें को
हर बार खींच लाती
वो कशिश...जो तुझसे मिली है
करूं...बंद आंखें
मुस्कुराता..तेरा चेहरा
नहीं छोड़ सकता,
हर धड़कन...जो तुझसे जुड़ी है।
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मुवक्किल था ना उस वक्त कोई ...मैं सजा का वाजिद हो गया
गुनाह हज़ारों थे जुबान पर... ना वजह उनमें से कोई हुआ
खुदा ने बख्शीश एक दी थी... कि कदर हमने ना उसकी की
बनाया खुदको ख़ुदग़र्ज़ इतना.. वो कहीं और शामिल हो गया
मौका लौटने को कई बार आया... उम्मीद उन्होंने भी की
ख्यालों में पाया कई बार... तो थोड़ी कोशिश भी की
मक्कारी छुपा रहे थे कहीं हम... जीतकर छोटी सी कोशिश को
भरोसा घिसता रहा वक्त पर.... वो धागा बारिक हो गया
वक्त ने करवट जो फिर बदली... कि नादामत करने लगे हम
उम्मीद ना कोई उस वक्त बची थी... तो आगे बढ़ने लगे हम
कोशिश एक नई शुरु कि हमने... कि सामना आंखो का हो सके
मांग सके वो हर माफ़ी... जो महसूस करने लगे हम
कुदरत ने एक चोट दी फिर ऐसी... ये वक्त काहिल हो गया
खोया वजूद खुद का मैंने... बिखरकर जाहिल हो गया
होश ना उस वक्त कोई... लड़खड़ाते अपनो का संभालना था
फिर एक सहर ऐसा सामने आया... वो किसी ओर का साहिल हो गया।
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