साख से टूटे हुए पत्तो ने बताया है
बोझ बन जाओगे तो अपने भी गिरा देगे।-
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नये दौर के इश्क़ में मैं पुराने ख़यालो वाला हूं,
कॉफ़ी के ज़माने में मैं चाय का दीवाना हूं।-
किसी को दे के दिल कोई नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ क्यूँ हो
न हो जब दिल ही सीने में तो फिर मुँह में ज़बाँ क्यूँ हो
यही है आज़माना तो सताना किस को कहते हैं
अदू के हो लिए जब तुम तो मेरा इम्तिहाँ क्यूँ हो
क़फ़स में मुझ से रूदाद-ए-चमन कहते न डर हमदम
गिरी है जिस पे कल बिजली वो मेरा आशियाँ क्यूँ हो-
कुछ इस तरह से मिलें हम कि बात रह जाए
बिछड़ भी जाएँ तो हाथों में हात रह जाए
अब इस के बा'द का मौसम है सर्दियों वाला
तिरे बदन का कोई लम्स साथ रह जाए
मैं सो रहा हूँ तिरे ख़्वाब देखने के लिए
ये आरज़ू है कि आँखों में रात रह जाए
मैं डूब जाऊँ समुंदर की तेज़ लहरों में
किनारे रक्खी हुई काएनात रह जाए
'शकील' मुझ को समेटे कोई ज़माने तक
बिखर के चारों तरफ़ मेरी ज़ात रह जाए-
ये चमन-ज़ार ये जमुना का किनारा ये महल
ये मुनक़्क़श दर ओ दीवार ये मेहराब ये ताक़
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर
हम ग़रीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़
साहिर
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"जमाना साथ है उसके, जो हर पल छिन बदलता है,
हमारे भाग्य का पांसा, हमारे बिन बदलता है,
जमाने मे तुम्हारे बिन, यूँ हम दिन रात फिरते हैं,
हमारे दिन नही फिरते हैं, केवल दिन बदलता है!!"
#DrKumarVishwas-
आग तो लग गयी इस घर में बचा ही क्या है
बच गया मैं तो वो कह देगा जला ही क्या है
अपने हाथों की लकीरें तो दिखा दूं लेकिन
क्या पढ़ेगा कोई क़िस्मत में लिखा ही क्या है
अख़्तर नज़्मी
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तुम आ गए हो तो कुछ चाँदनी सी बातें हों,
ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है।
वसीम बरेलवी
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हम बहुत दूर निकल आए हैं चलते चलते
अब ठहर जाएँ कहीं शाम के ढलते ढलते
अब ग़म-ए-ज़ीस्त से घबरा के कहाँ जाएँगे
उम्र गुज़री है इसी आग में जलते जलते
रात के बा'द सहर होगी मगर किस के लिए
हम ही शायद न रहें रात के ढलते ढलते
रौशनी कम थी मगर इतना अँधेरा तो न था
शम-ए-उम्मीद भी गुल हो गई जलते जलते
आप वा'दे से मुकर जाएँगे रफ़्ता रफ़्ता
ज़ेहन से बात उतर जाती है टलते टलते
टूटी दीवार का साया भी बहुत होता है
पाँव जल जाएँ अगर धूप में चलते चलते
दिन अभी बाक़ी है 'इक़बाल' ज़रा तेज़ चलो
कुछ न सूझेगा तुम्हें शाम के ढलते ढलते
इक़बाल अज़ीम
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