Ravi Ratna   (Rangat)
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I'm just a small particle that feels, expresses and lives.
Joined 26 May 2020


I'm just a small particle that feels, expresses and lives.
Joined 26 May 2020
17 APR AT 0:06

झुक गया जो, हर्षृंगार ख़ुदा,
महके हैं मेरे, शब-ओ-शाम ख़ुदा।

सारी गिरहें, खुलने सी लगीं,
जबसे ख़िदमत में, हैं हाथ ख़ुदा।

बात-बात पे यूं रूठ जाता है,
जैसे हम उनके, हों ख़ास ख़ुदा।

आ रहा खूब, उजाला घर में,
चिलमनों में कहां, वो बात ख़ुदा।

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9 APR AT 1:12

घड़ी ने ली अंगड़ाई,
तुझे मैं याद न आई,
रहा फिर भी तू अपना, ओ, सजना..
मैंने...
मैंने चादर भी चढ़वाई, मन्नत की डोरी बंधवाई,
मेरी आंखों में तू है बसा, ओ सजना..
आ जा ना.. अब तरसा..ओ सजना..
आ जा ना.. अब तरसा..
(..तूने चादर जो चढ़वाई, फिर क्यूं आया ना हरजाई,
तूने सच्ची आस लगाई, फिर क्यूं आया ना हरजाई..हो..हो..)

[Song Extension]

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8 APR AT 0:34

कहां जाकर सुनाए, तेरा फ़रमान पिया,
ये ज़मीं तंग है, बेरुख, आसमान पिया...

कितने प्यारे हैं लतीफे, शाद चेहरे सब, 
न गिरी अब तक जिनपे, बरसात पिया...

मुझसे मिलकर ही जाती हैं, हवाएं सारी,
जबसे गुलशन के हुए हैं, बाग़बान पिया...

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7 APR AT 10:46

वक़्त आ गया है कि
दीवारों की ऊंचाई बढ़ा दी जाए,
दायरे और भी तंग कर दिये जाएं,
मन को सिकोड़ लिया जाए और
लम्बी प्रतीक्षा के बाद
मिले आधे-पौने प्रेम को
द्वार से पूरा लौटा दिया जाए।
वक़्त आ गया है...

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29 MAR AT 0:15

जो थक गया मन, तो क्या कीजे,
ओर क़िबला के, ख़ुदा-ख़ुदा कीजे।

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27 MAR AT 22:36

और इक दिन आएगा जब
मनुष्य को सबसे ज़ोरदार धोखा
उसकी ख़ुद की आशाएं देंगी।
तब वो व्याकुल होकर ढूंढेगा;
चंद किस्से, कुछ ख़्याल और कविताएं!

मैं बस उसी रोज़ का इंतज़ाम कर रहा हूं।

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26 MAR AT 22:57

प्रेम के कांधों पर
भार बढ़ता जा रहा है;
जीवन को समेटने का भार,
और उसके पैरों के नीचे की ज़मीं
खोखली होती जा रही है;
विश्वास की ज़मीं।

ऐसे में तुम प्रेम की रक्षा करो,
वो निःसंदेह ही तुम्हे बचा लेगा,
अनेकों त्रासदियों से।

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8 MAR AT 16:19

सदियों से छली गई स्त्री ने
अभी पुरुषसत्तात्मक समाज से
अपने एक दिन का
इंसाफ भी नही मांगा है,
और पाया
चौथाई का भी नहीं!
(८/३/२०२४)

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5 MAR AT 22:09

इक किल्लत ही तय करती है क़ीमत,
हर शय यहां सबके लिए महंगी नहीं होती।

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30 JAN AT 7:38

पता नहीं मुझे क्या हो रहा है पर जो कुछ भी हो रहा है सही नहीं है। मैं हर दिन अपने आप को खोता जा रहा हूं। हर घड़ी मेरे अंदर का ख़ून का क़तरा-क़तरा कुछ तेज़ाब, कुछ पानी होता जा रहा है। मेरी हड्डियां गलकर मोम होने लगी हैं। मुख की मिठास कड़वी हो रही है और आंखों में गहरी उदासी का समंदर दिख रहा है।

कई सारे अफसोस, कई सारी निराशाएं, कई बार टूटी उम्मीदें और बेवजह भागती जिंदगी का जबरन हिस्सा बनाएं जाना, मनुष्य को कितना जर्जर कर देता है और कितना असहाय भी।

(मेरी डायरी से, 29/01/24)

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