घड़ी ने ली अंगड़ाई, तुझे मैं याद न आई, रहा फिर भी तू अपना, ओ, सजना.. मैंने... मैंने चादर भी चढ़वाई, मन्नत की डोरी बंधवाई, मेरी आंखों में तू है बसा, ओ सजना.. आ जा ना.. अब तरसा..ओ सजना.. आ जा ना.. अब तरसा.. (..तूने चादर जो चढ़वाई, फिर क्यूं आया ना हरजाई, तूने सच्ची आस लगाई, फिर क्यूं आया ना हरजाई..हो..हो..)
वक़्त आ गया है कि दीवारों की ऊंचाई बढ़ा दी जाए, दायरे और भी तंग कर दिये जाएं, मन को सिकोड़ लिया जाए और लम्बी प्रतीक्षा के बाद मिले आधे-पौने प्रेम को द्वार से पूरा लौटा दिया जाए। वक़्त आ गया है...
पता नहीं मुझे क्या हो रहा है पर जो कुछ भी हो रहा है सही नहीं है। मैं हर दिन अपने आप को खोता जा रहा हूं। हर घड़ी मेरे अंदर का ख़ून का क़तरा-क़तरा कुछ तेज़ाब, कुछ पानी होता जा रहा है। मेरी हड्डियां गलकर मोम होने लगी हैं। मुख की मिठास कड़वी हो रही है और आंखों में गहरी उदासी का समंदर दिख रहा है।
कई सारे अफसोस, कई सारी निराशाएं, कई बार टूटी उम्मीदें और बेवजह भागती जिंदगी का जबरन हिस्सा बनाएं जाना, मनुष्य को कितना जर्जर कर देता है और कितना असहाय भी।