Raveena Bartwal   (© रविना बर्त्वाल)
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Joined 9 December 2024


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4 JUL AT 18:00

मैं ना, बीच बीच मे गुम हो जाती हूँ,
होती तो हूँ मगर होते हुए भी
कहीं चली जाती हूँ कहीं पर
बैठी हुई बेशक बगल में होंगी
पर वाकई में कहीं दूर ही निकल जाती हूँ
अलग अलग जगहों पर, अलग अलग उम्र पर
अलग अलग किताबों पर, अलग अलग पंक्तियों पर
अलग अलग क्लासरूम पर, अलग अलग बेंच पर
अलग अलग किराये के मकानों पर, अलग अलग आँगनो पर
झांकती नीचे गली पर
बुलाने पर दोस्तों के नीचे सिड़ियों से
जाते हुए फैलाती हुई अपने पंख
धूल से सन्नी ज़मीन पर बैठकर
खो खो खेलने लग जाती हूँ
किसी क्लासरूम से बाहर निहारती हुई
खेल के मैदान पर नज़रें गड़ाये हुए
भूल जाती हूँ क्या लिखा है ब्लैकबोर्ड पर
चल रहा अभी कोनसा चैप्टर
है खड़ी कोनसी टीचर
क्यों चिल्ला रही मुझपर
उस क्लासरूम से निकल कर वापस आती हुई
मैं चुपचाप बैठ जाती हूँ तुमारे बगल पर
जैसे कहीं गयी ही नही थी कहीं पर




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27 JUN AT 0:47

जानते हो
कोई लुभाता नही
जरा भी पसंद आता नहीं
करूँ चाहे कितना भी जाहिर
व्यक्त मुझसे तु हो पाता नहीं
बादलों में ढूँढती हूँ
मेरे शहर बारिशों का पानी आता नही
किसी के बुलाने से यूँ तो जाती नहीं किधर भी
एक तेरा बुलावा है की, आता नहीं
मैं तेरी पूजा करूँ
अपना मन तुझको अर्पण करूँ
ऐ मेरे देव तुही बता तुझे क्या मैं भेट करूँ
यूँ तो मुझसे जरा भी झुका नहीं जाता
लेकिन तेरे आगे मेरा अहंकार भी मत्था टेक जाता
मैं हूँ गुम तेरी खोज में
मेरी दुनिया में क्यूँ नही तु आता




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25 JUN AT 18:36

मैं उस दिन को याद कर रही हूँ
तुम्हारे बगल में बैठे तुम्हारा इंतज़ार कर रही हूँ
वक्त की उस जालिम घड़ी का बहिष्कार कर रही हूँ
तुम्हारे कदमों के ऊपर कदम रखने का इकरार कर रही हूँ
तुम्हें रोकना चाहती हूँ या जाने देना हमेशा के लिए इस बीच मैं भटक रही हूँ
मैं बीते हुए कल और आने वाले पल के बीच लटक रही हूँ
मैं जानते हुए की तुमको चले जाना ही है
फिर भी रुकने का प्रयास कर रही हूँ
तुम्हारे दिल को चैन आए जहाँ वहाँ का ख्याल कर रही हूँ
जानती हूँ छोड़ के जाना तुम्हारा अब शौक बन गया है
फिर भी रुक के तुम्हारे पास अपना उपहास कर रही हूँ
सोचती हूँ स्वाभिमानी कितनी थी मैं
तुमहारे प्यार में पड़कर के अब बर्बादी अपनी स्वीकार कर रही हूँ
दिखाए थे तुमने शुरू में जो रूप रंग उसमें अब के तुम्हारे तेवर तलाश कर रही हूँ
कितना फ़ासला है किरदारों का ये एहसास करती हूँ
अरे मैं तो अब ये याद करती हूँ की
तुमने क्या बना दिया मुझे
मैं खुद से ये सवाल करती हूँ

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22 JUN AT 10:33


हर कोई अपने विकल्पों का निर्धारण करता है
कल्प अकल्प के मध्य विकल्प चुन ना मेरे मन को राजी नहीं.
मैं स्वयं बुन ना चाहती हूँ राह अपनी
पूर्वाग्रहों से परे
तुम मुझे नहीं जान पाओगे तब तक
जब तक लिए चलोगे समागमों को
किसी भी निष्कर्ष पर पहुँच कर
अर्थ की हानि ही होगी
वहीं मिलूँगी तुमे जहाँ छोड़ोगे तुम गठरी किरदारों की
बांधना मत तनिक भी मैं तो सब कुछ छोड़ के आई हूँ
अनंत तुम्हारी भेजी हुई सवारियों पर
शून्य में लीन मेरी सवारी होगी

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19 JUN AT 8:25

हर कोई अपने विकल्पों का निर्धारण करता है
कल्प अकल्प के मध्य विकल्प चुन ना मेरे मन को राजी नहीं
मैं स्वयं बुन ना चाहती हूँ राह अपनी
पूर्वाग्रहों से परे
तुम मुझे नहीं जान पाओगे तब तक
जब तक लिए चलोगे समागमों को
किसी भी निष्कर्ष पर पहुँच कर
अर्थ की हानि ही होगी
वहीं मिलूँगी तुमे जहाँ छोड़ोगे तुम गठरी किरदारों की
बांधना मत तनिक भी मैं तो सब कुछ छोड़ के आई हूँ
अनंत तुम्हारी भेजी हुई सवारियों पर
शून्य में लीन मेरी सवारी होगी

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18 JUN AT 22:26


बाहर से अंदर झांकना
और अंदर ही आ जाना दो अलग अनुभव हैं
जिनके उजाले तुम्हें खींच लाते हैं
असल सवाल तो ये है की क्या उनके अँधेरे तुमको बांध पाते हैं
क्या जब जिल्द हटती है दिखावे की
तब भी क्या तुम उनमें रह पाते हो
या ऊब जाते हो जानकर की कुछ खास नहीं है ये भी
या फिर एक नई दौड़ में लग जाते हो
ढूँढने कुछ खास
ये खास कैंसा होता होगा
क्या ये भी जानते हो
या यूँही बिना नक्शे के हर दूसरे भूगोल कब्जा रहे हो
भागे भागे किसी के करीब होने की चाहत में खुदसे गरीब होते जारे हो
हर नया शख़्स भा जाता है
फिर वही पुराना ड्रामा दोहराया जाता है एंट्री एक्जिट का
नए जिस्म के शौक से पुराने की यादों को भुलाया जाता है
इंसानों को अपनी दो कौड़ी की जरूरतों के लिए छला जाता है
प्यार के नाम पर क्या क्या नहीं किया जाता है


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18 JUN AT 22:20

मुझे कोई तो कविता लिखनी चाहिए थी
इस आखरी छोर के भी आखिर पे
पर आज मैं अपने दिल को बख़्श रही हूँ
भावनाओँ की पीड़ा के कर्ज से मुक्त कर रही हूँ
आज मैं इस जगह पर शांति के फूल चढ़ा रही हूँ
के यहाँ तुम जब भी आओ
इन शांति के फूलों को महसूस कर पाओ
और यहीं से भागे थे तुम
तो जब लौटकर खुद को यहाँ खड़ा पाओ
तो सुकून से इस नगरी को देख पाओ
मुड़ मुड़के मेरे चेहरे को तराश रहे थे उस दिन
आज जरा इस जमीं को दो घड़ी रुक के
एहसास करो की यहीं से तो जाने की जल्दी लगी थी
उस शाम तुमको, मैं वहाँ आसमानी लिबास में
थोड़ी तुम्हारे पास में आखरी छोर के आखिर पे
तुम्हें देखने के लिए तरस रही थी
आँखें जो थी ही पहले से भरी
उनको पूरी खाली करने की बारी
लगा जैसे आज आ ही गयी
मैं आखरी छोर के आख़िर पे





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22 FEB AT 20:55

बोलने में ऊर्जा खर्च नहीं करनी चाहिए भगवान् तो उनको भी सुनता है जो गूंगे हैं

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21 FEB AT 15:50

आप गलत जगह पर सही भी होंगे तो भी लोग आपको गलत समझेंगे

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7 FEB AT 17:28

Ye jo log block karke unblock krte hain ye wohi log hain jo pehle darwaja band karke khidaki se dekhte the.

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