कैसे फ़रियाद करूँ ख़ुदा की बस्ती में भीड़ बहुत है,
इतनी इल्तिज़ा के बीच मेरी दुआओं में असर नहीं आता।
न जाने कहाँ गुम हो गया वो तक़दीर का फ़रिश्ता है,
तड़प तड़प के गूँज रहा आसमां और वो बेख़बर नहीं आता।
हर दिन सबक दे रही ये बेबाक ज़िंदगी का खेल है,
इल्ज़ामात की चादर ओढ़े मुझे मुस्कुराने का हुनर नहीं आता।
लोग कहते हैं बर्दाश्त करो काँटें होंगें राह कठिन है,
चल रही हूँ मैं काँटो पे पर दुनिया को रखना सबर नही आता।
मज़बूत इरादों के साथ फ़िर से सुबह होगी कहते हैं,
मशाल बने दिल को क्यों रास्ते का पत्थर नज़र नहीं आता।
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