𝓡𝓪𝓼𝓱𝓶𝓲 𝓢𝓱𝓾𝓴𝓵𝓪   (© Rashmi Shukla(Saiyahi))
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Joined 26 May 2021


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मोहलतों की दूरियाँ सही न जाए,
दारद दिल की अब कही न जाए।

याद .आती है उनकी  रह रह कर,
अश्कों की धार तभी गही न जाए।

हुस्न निखरता है मौजदूगी से उनके,
दिलासों से सच साँसे तही न जाए।

बाग के बुलबुलों के गीत गूँजन से,
हिज्र की फाँके रूह पे पही न जाए।

यादों की. ख़ुश्बू जलती लोबान सी,
रौशन शरर कर .शमा वही न जाए।

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मिले थे संग हसरतों के , खुशियाँ सिमटाते चले गए ,
कांधे पर बोझ-ए-इल्ज़ाम ले कर सुकूँ जलाते चले गए।

वो लिये संग , उन ख़ूबसूरत लम्हों के ,
मीठी सी चुभन ज़िगर में छुपाते चले गए।

किससे करें शिकवा , दर्द-ए-दिल है अपना ,
वो खट्टी-मीठ्ठी यादें ,रूह में बसाते चले गए।

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'दिल  की  बस्ती में लाता  ज़लज़ला सा है,
आज़ादख़याल  है सनम , दिलजला सा है।
बवाल है सवाल भी,गोया मामला संगीन है,
कुर्बते सोनी में महिवाल मेरा मनचला सा है।

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इश़्क की  गागर में , तेरी  मंज़ूरी का नल हो,
सब्र का बांध  टूूटे तो  हम  कैसे न पागल हो।
हिज़्र की शब बीती दिल अब संभलने से रहा,
तेेरे सीने पर सनम यूँ मेरी हया का आँचल हो।

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तक़्सीरों का खुलासा करने को  होड़ लगी है,
ज़ुज इस तवानाई के दुनिया की पहचान क्या है?

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विचार फूले फले, वल्लरी का हो विस्तृत निर्माण।
अंदर सोया बीज है,उष्णता बढाए धरा का प्राण।।

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असलियत-ए-वफ़ा ग़र समझे तो यही  इश़्क है ,फ़िराक है,
आँसुओं का भरकर नूर, दिलों के मुश्क़ से सिलता चाक है।

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।। यकीं की बूंदें ।।

धूप के रेशों से गीत रचाकर खुले आसमाँ में,
झांकना क्षितिज के उस पार से मन के मचान में,
ठंडी हवा बनकर मैं भी इतराउँगी इस धरा पर,
छिड़कोगे जब प्यार की बूंदें रौशन होते बदन में।

सन्नाटे दिलों के खिलखिला कर  हंस पड़ेंगे,
भीड़ से दूर छुपकर उष्ण सूतों में फंस पड़ेंगे,
यकीं की बूंदों से पलकें खुलते बंद होगी जब,
अनुभूूतियों के निशाँ हमारी साँसों में धंस पड़ेंगे।

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भागती दौड़ती ज़िंदगी में हो चला परेशान है,
हर कोई खुश होने का  ढोंग करता नादान है।

आदमी क्या चाहता है ख़ुद उसे ही पता नहीं,
अंधी रेस में भाग-भागकर बस होता हैरान है।

रहते हैं पड़ोसी बनकर  गगनचुंबी इमारतों में,
घर के नंबर से यहाँ  सब लोगों की पहचान है।

सत्ता की भूख में,घमंड की मयकशी में जीता,
भूूल जाता जडें अपनी,कहाँ उसका औतान है।

मेहनत क्या इबादत क्या,बदले पलक झपकते
तिश्नगी लगी ऐसी याद नहीं  कौन अरकान है।

पेश-क़दमी करते जब बे- रुख़ी है चार दिन की
ख़ुदा के चमत्कार से बस चश्म रहता अंजान है

मानो ये  ज़िंदगी हक़ीक़त में कुछ नहीं 'सैयाही',
फक़त जाने हमारा आख़िरी ठिकाना श्मशान है।

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With silken threads so fine and bright,
I weave your hopes in faith’s pure light,
Into a sky where starlights gleam,
A fading dusk, a twilight dream.

A vision born of morning’s grace,
Softly melts upon my face,
From hope to will, it finds its way,
To heaven’s gate at break of day.

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