आज बरबस बीती कुछ बात याद आई है,
मार्च का महीना लाई यादों की पूरवाई है...
वे कुछ ऐसे ही थे परीक्षा के दिन,
नहीं होती भाषा पर्यायवाची के बिन...
मेरी पुस्तिका देख शिक्षिका थी मुस्काई,
पूछी मुझसे, ये पर्यायवाची कहाँ से लाई...
औरत का पर्याय मैंने, लिखवाया था अबला...
परंतु तुम तो इस पर लिख आई हो...सबला...
मैं तो याद कर ही रही थी अबला...
पर मेरी माँ ने कहा.. नहीं औरत कोई बला...
मुस्कराते हुए बोलीं.. अदम्य है औरत में बल,
खुद पर विश्वास कर... तू हर तरह से है सबल...
जो तू खुद को ही अबला कहेगी...
किस तरह की सृष्टि तू गढ़ेगी...
औरत का अबला होना बीते दिनों की बात है,
तलवार समझ इसे जो कलम तुम्हारे हाथ है...
ये हर पल तुझे अबला होने से बचाएगी...
सदियों तुझसे सृष्टि ये नई रचवाएगी...
रश्मि...
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