उलझनें बहुत है ज़िंदगी में यूं भी,
खुद से कहीं कौन उलझना चाहता है!
पर तेरी इन बेपरवाह उलझी सी लटों में,
मैं हवा बनकर उलझ जाना चाहता हूं!
थोड़ा पाने की चाह में क्या कुछ नहीं खोया,
नींद खोई.. चैन खोया.. सुकूं खोया,
इससे ज़्यादा क्या कोई खोना चाहता है!
पर तेरी आंखों की इन डूबती गहराई में,
मैं काजल बनकर इनमें खो जाना चाहता हूं!
कभी जुड़ गए तो कभी छूट गए कितनों ही रिश्तों से,
अब किसी भी बंधन में कौन बंधना चाहता है!
पर तेरी कलाई में यह जो काला धागा है,
मैं उसमें दुआ बन कर बंध जाना चाहता हूं!
मैं अपने प्रेम का इज़हार करके,
रिश्ते का नाम दे किसी दायरे में नहीं समेटना चाहता!
प्रेम को प्रेम ही रहने देना चाहता हूं,
पर चुपके से मुस्कान बनकर बस...
मैं तेरे लबों पर सदा के लिए अपना ठिकाना चाहता हूं!-
मैं अब मुस्कुराना चाहती हूं
ऐसा नहीं कि गमों से मुंह मोड़ना चाहती हूं
या ज़िम्मेदारियों से भाग जाना चाहती हूं
मैं तो बस अब अपने लिए भी जीना चाहती हूं!!
ना ख्वाहिश है चांद तारों को पाने की
ना ही बादलों संग उड़ना चाहती हूं
मैं तो ज़मीन ने जुड़ी हुई हूं
बस ज़मीन पर ही चलना चाहती हूं!!
ना किसी से आगे निकलने की हसरत है
ना किसी से पीछे रह जाने का डर है
मेरी सादगी मुझमें बस बनी रहे
मैं अब आईने में खुद को निहारना चाहती हूं!!
किसी का प्रेम ना मिले तो कोई शिकवा नहीं
पर कोई नफरत ना करे मैं यह चाहती हूं
जानती हूं यह आसान तो नहीं है फिर भी
हां मैं अब खुश रहना चाहती हूं!!-
उम्मीदें बिखरी हो, भरोसा तोड़ा गया हो,
तो दिल का तड़पना तो लाज़मी है!
रो लो..जी भर कर..चीख कर..चिल्ला कर,
यूं आंसुओं को बहाना तो लाज़मी है!
नाराज़गी होगी खुद पर... उस बेवफ़ा से भी ज़्यादा,
तो कोस लो खुद को भी बेइंतहा..बेतहाशा!
खरोंच लो नाखूनों को दीवार पर ज़ख्मी होने तक,
यूं भीतर का लावा निकालना भी लाज़मी है!
दर्द जब बढ़ जाए हद से भी ज़्यादा लम्हा-लम्हा,
तो कर लो कैद खुद को उस दर्द के दरमियाँ!
थाम लो दामन रूसवाई का तन्हाई का,
यूं खुद को सताना-तड़पाना भी लाज़मी है!
(अनुशीर्षक में)-
सुनो,
ये tattoo-wattoo हमसे ना होगा,
इसके बदले तुम वफ़ा ले लो !! ❤-
सरल सी सहज सी
मिट्टी की महक सी
चढ़ जाती है ज़ुबां पर जब
खिल जाती है तब बसंत सी
एकता और गौरव की निशानी है हिंदी
हमारे संस्कार हमारी संस्कृति है हिंदी
स्वर और व्यंजनों की खान है हिंदी
हम हिंदुस्तानियों की शान है हिंदी
मिली है हमें किसी धरोहर स्वरूप
वो आशीष है वो आभार है हिंदी
सुमधुर कोमल अथाह भाव है हिंदी
मात्र-भाषा नहीं मातृभाषा है हिंदी!!-
बनकर बूंद ओस की
हर रात तुझसे मिलने आती हूं
तेरी खिड़की के शीशे पर चुपके से
मोती बनकर ठहर जाती हूं
अनजाने ही तेरी नज़रें
पड़ती हैं मुझपर जब भी
मैं हौले से शर्मा कर
खुद में ही पिघल जाती हूं
हर सुबह ओझल कर देता है
तू अस्तित्व को मेरे
अपने ही हाथों से
पर तेरी उस एक छुअन के लिए
मैं हर रोज़ तेरे हाथों
मिटने चली आती हूं !!-
सुनो इस धरा में रहने वाला
औरों की तरह मैं भी एक प्राणी हूं,
नाम है मेरा "पुरूष" अनंत काल से
मैं भी इस धरती का वासी हूं!
धैर्य, संवेदनशीलता, सहनशीलता, प्रेम आदि
सब तुम स्त्रियों के हिस्से आया,
निष्ठुरता, आतुरता, क्रोध, निर्दयता हम पुरूषों के हिस्से
स्थायी रूप से लिख दिया गया!
हो रुप तुम लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, अन्नपूर्णा का
मन से... हृदय से नमन है तुम्हें,
मैं हूं "पुरूष" तो इसका आशय ये नहीं कि
मैं कोई श्रापित हो गया !!
(अनुशीर्षक में)-