उलझनें बहुत है ज़िंदगी में यूं भी,
खुद से कहीं कौन उलझना चाहता है!
पर तेरी इन बेपरवाह उलझी सी लटों में,
मैं हवा बनकर उलझ जाना चाहता हूं!
थोड़ा पाने की चाह में क्या कुछ नहीं खोया,
नींद खोई.. चैन खोया.. सुकूं खोया,
इससे ज़्यादा क्या कोई खोना चाहता है!
पर तेरी आंखों की इन डूबती गहराई में,
मैं काजल बनकर इनमें खो जाना चाहता हूं!
कभी जुड़ गए तो कभी छूट गए कितनों ही रिश्तों से,
अब किसी भी बंधन में कौन बंधना चाहता है!
पर तेरी कलाई में यह जो काला धागा है,
मैं उसमें दुआ बन कर बंध जाना चाहता हूं!
मैं अपने प्रेम का इज़हार करके,
रिश्ते का नाम दे किसी दायरे में नहीं समेटना चाहता!
प्रेम को प्रेम ही रहने देना चाहता हूं,
पर चुपके से मुस्कान बनकर बस...
मैं तेरे लबों पर सदा के लिए अपना ठिकाना चाहता हूं!
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