बारिश का मौसम है, फिर इतवार पुराने ले आओ।
चाय बना कर रक्खी है, अख़बार पुराने ले आओ।।
माना व्यस्त बहुत हैं अब, फुरसत नहीं जमाने को।
इक दिन की छुट्टी ले लेंगे, तुम यार पुराने ले आओ।
कहीं दूर पहाड़ी, फिल्म देखने, जैसे काम नहीं होंगे।
फिर गांव घूमने चलते हैं, परिवार पुराने ले आओ।।
नए जमाने तुम्हें मुबारक, चकाचौंध ये दुनिया की।
जी खोल के खुशियां बांटेगे, त्योहार पुराने ले आओ।
एक गाय की रोटी, एक कुत्ते की जिस चूल्हे पर पकती थी।
सारा दिन वहीं बिता देंगे, वो व्योहार पुराने ले आओ।
आते जाते खुले किबांडे, झलक मिले दिन बन जाए।
इज़हार हुआ न जिनका कभी, वो प्यार पुराने ले आओ।
थे कच्चे घर, कच्ची गालियां, पर रिश्ते पक्के होते थे।
न जलन, न द्वैश बस अपनापन, वो विचार पुराने ले आओ।-
रात की आंख लगी, और आके बैठ गई।
सुबह सब ख्वाब चुरा कर बैठ गई।
जिंदगी धूप में तपती रही थी, देर तक।
जरा सी छांव मिली, पास जाकर बैठ गई।
यूं ही चलता रहा खेल, दिल दुखाने का।
दिल्लगी से ही, दिल लगाकर बैठ गई।
यूं तो मुश्किल रहा, कुछ भी उसे छुपा पाना।
खुशियां सरेआम थीं, तो ग़म छुपा के बैठ गई।
आते जाते रही थी, बस मुलाकात हमारी।
मिला जो अपनापन, अपना बनाकर बैठ गई।
मेरे दोस्त, इसकी कहानी अभी अधूरी है।
रुकी जहां पर, एक किस्सा बनाकर बैठ गई।।
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उनके पाँव के नीचे, बची जमीन नहीं।
ताज्जुब यह है, इसका उन्हें यकीन नहीं।।
हमपे तोहमत लगाते हैं, साफगोई की।
मैं कवि हूँ, गली का कोई हकीम नही।।
हम हैं इसी बस्ती के, जो जल रही है।
माफ करिए, मैं आपसा तमाशबीन नही।।
हर आवाज को लाजिम है, दबाया जाना।
कैद कर पाए इसे, ऐसी कोई संगीन नही।।
मजबूरी की जुवां खुद बनता है इंकलाब।
हम यूं ही धरती हिलाने के शौकीन नही।।-
वो दूर दीवार पर पड़ रहे जो साए हैं।
वो सब दोस्त हैं, जिन्हें हम पीछे छोड़ आए हैं।
तुम्हारी रंगीन महफिल में, हम रुक तो जाते।
पर सब अपने हैं पीछे, यहाँ सब पराए हैं।।-
आए थे जनवरी से, दिसम्बर से गुजर गए।
कुछ लोग कलेंडर से, रिश्ते बदलते रहे।।-
कभी बैठोगे अकेले में, यूं ही मुस्कुराओगे।
हमें कोसोगे, और खुद को ताने सुनाओगे।।
करोगे दुआ, कि काश वो दौर लौट आए।
हम लौटेंगे नही, न ही तुम लौट पाओगे।।-
अभी सीखना और बाकी है हमको,
अभी जिंदगी और सिखला रही है।
हम जिनको आस्तीनों मे पाले हैं अपनी,
वो उनकी हकीकत बतला रही है।।-
पहले दबाई चिंगारी, अब हवा देने लगे हैं।
खुद कत्ल कर, लम्बी उम्र की दुआ देने लगे हैं।।
हमको सिखा रहे हैं, करना कद्र रिश्तों की।
खुद वफा के नाम पर, दगा देने लगे हैं।।
जब तक थे काम के, खुदा कहा गया हमें।
बस्ती में अब कुछ लोग, बुरा कहने लगे हैं।।
जिनको सुनाके किस्से, रातों को सुलाया था।
सुबह हुई जो अब, वो भी कथा कहने लगे हैं।।
हम सागर तो नही, गहरी नदियों से हैं जरुर।
वो तलइयों से, पहली बारिश में बहने लगे हैं।।
गुजरा हुआ वक्त हूँ, लौट कर बापस न आऊंगा।
अब हम भी किसी की यादों में रहने लगे हैं।।-
हजार ताने सुना कर, रुक कर सो जाए, तब भी माथा चूमूं मैं।
खीज तो मैं भी जाता हूँ, पर उससे मुहब्बत कम नही होती।।-
रंग बिरंगी दुनियां को, बदरंगीं करके छोड़ेंगे।
नफरत वाले लड़ लड़ कर, हर एक आंख को फोडे़ंगे।-