नया तो कुछ भी नहीं फ़िर नया क्या कहूँ, वो ही ठंडी थकी रात थी, और सुबह लिपटी कोहरे में, ना नई मै थी ना नया कोई आग़ाज़ पुराने साल की थकान लिपटी रही ज़िस्म में, जिंदगी की रजाई, सवालों की गर्मी से आग की तापीस देती रही हाँ नया तो कुछ नहीं था, वो ही सर्द रात वो ही सर्द सबेरा कोहरा हैं, चुपचाप तीन सौ पैसेट दिन का सफ़र तय करने को
वफा का कर्ज इस तरह अदा किया उसकी कसम खाके उसे अलविदा किया अब खाली हैं ज़िंदगी,यादों को कैद किया दिल के अंधेरे में जाल ना हो जाए, इसलिए हर रोज दिया किया जल रही हूँ, अब मैं..इन सर्द रातों में गर्महाट का काम,उसके गर्म अल्फाज़ो ने किया आँखों को खोल ख़्याबो को अलविदा किया इस तरहा मैंने अपने प्यार का फर्ज अदा किया ...!
प्यार कब कोई बंधन मानता हैं हमने तो ख़ुद को बंधा हैं तुम्हारी खुशी के लिए डर के साय में प्यार कहाँ पनपता है तुम समझते नहीं और मैं कह नहीं पाती बस इतना जानलो, प्यार पाने का नहीं देने का नाम हैं सब कुछ बस तुम्हारे लवो की हँसी के लिए यार चाहत हैं बेशुमार हैं पर सुनो जबरदस्ती तुम्हें खुद से बांध लू इतनी सस्ती मेरी मोहबत नहीं हर पहर ख्यालों में दस्तक देते हों , तुम्ही कहो कौन सी घड़ी बीती तुम बिन मेरा सब कुछ तुम ही तो हों मैं भी तुम्हारी ज़िंदगी बनूँ, ये ज़रूरी तो नहीं हैं ना..!! सही कहा ना... बोलो ना .... इसलिए मैं तुम्हें ना चाहूँ, ये भी तो ज़रूरी नहीं ...
छत घूरते –घूरते बोर हों नयन झरोखें से बाहर झांकने लगे अंधकार में डूबा नभ काले गरजते-बरसते मेघ हवा के झोंके संग, घुमड़ घुमड़ पहाड़ों पर आवारा घूमते दिये से टिमटीमाते घर मदहोश बहता नदिया का जल देख व्याकुल होंता मेरा जिया बेजार हों नयन फ़िर छत घूरने लगे ... बीता जीवन मानस पटल पर उभर, छत को सिनेमा बना गया अब मैं अपनी ही कहानी देख कभी हैरा, कभी उदास तो कभी... जीवन बर्फ सा पिघला रह गया खाली बर्तन बेमुरत सा बेवजह बजने को..! ना जानें कितने चलचित्र लहुलुहान करने को खंजर
मेरे चारों ओर पसरी घास कंक्रीट दलदल कब तक कोई इसे साफ करें दलदल सुखता नहीं घांस बार बार ऊग आती हैं, धीमे धीमे उसने मरुस्थल से रुखसत ले ली मैं ऊंट की माधीम् प्यास को अपने भीतर समेटे हुए दौड़ पड़ी मरु भू पर चिल्मिलाती धूप फटे होठ तपते नग्न पाँव काफ़िला खोया था मरीचिका में छुपी थी श्याद कहीं कोई मंजिल...!
ज़िन्दगी मरघट सी डोलने लगी मैं भी एक जिंदा मरघट कोई मसान का तिलक लगाएं कोई मसान से दूर भागे सब की मंजिल फिर क्यों मसान ही हैं.. मोह–माया, जग –जंजाल सब छुट जाना एक दिन आत्मा तितर– बितर मैं लिए बैठी सवाल हज़ार कोई अपना कर रहा नभ में इंतज़ार नन्हें नन्हें मेरे पग देखो कैसे हुए बेहाल लहू बह रहा, नैन सुनें कान तरसे, जलता मेरा हर स्वर धुंआ धुंआ जल के खुशबू बिखर रही चारों ओर..!