क्यों इंतज़ार उसी का होता है जिसे लौट कर आना नहीं है
लौट आओ उस पल के जादू में होता अब गुज़ारा नहीं है
तेरे लिए खिलते होंगे नए-नए लाखों गुलाब इस बहार के
तेरे अलावा मुझे सहेज ले, मिला एक भी सहारा नहीं है
उस पल का जादू तार-तार होने लगा है तन्हाई के शरार में
एक पल भी तुझसे फ़ासलों में जीना मुझको गवारा नहीं है
मिली है ज़िंदगी इसे जीना तो है, मगर सिर्फ़ तेरे ही साथ
जो भी करना है इसी जन्म में, लेना पैदाइश दुबारा नहीं है
जो मेरी बाहों दरमियान है, जो साँसों घुल रहा वही मेरा है
एक बार कह दिया तुम हो मेरे, ये नया तो इशारा नहीं है
तुम जब होती हो हमबिस्तर, बिस्तर ही गमक उठता है
ये दिल्ली की हाड़तौड़ सर्दी है सौन्दर्य-ए-बुख़ारा नहीं है
आकर शिफ़ा दे जाओ दिल को, साँसों को, ज़िस्म को
'प्रीत' तेरे जाने के बाद काकुल तरतीब से संवारा नहीं है-
बुतशिकन की उल्फ़त की आतिश बारिश बुझाए है
मगर बारिश जो आग लगाए उसको कौन बुझाए है-
यूँ लौट आने की हुई इम्कान नम तो है
उम्मीद वस्ल की इसी एक पल में कम तो है-
आख़िर तेरी चुप्पी टूट गई इश्क़ हुआ गुलज़ार
तेरी नफ़रत हार ही गई जीत गया मेरा इंतज़ार
जितनी हिम्मत दूर जाने की लगाई थी तुमने वो
मेरी शिद्दत मोहब्बत के आगे गई आख़िरत हार
मोहब्बत तो तेरे लिए दौलत कमाने का साधन
दीप बुझा अंतिम रूप से तूने दूर किया विकार
जिद्द मेरी मान तुम लौट आई फिर मेरी ही ओर
उल्फ़त-ए-अलामत में छुपा देखा है तेरा इक़रार
मुद्दतों से छाई ग़म की घटा हटी माह दिखा है
'प्रीत इश्क़ की राह पर है केवल तेरा अख्तियार-
इश्क़ की घनघोर बारिश भीगा तन-मन
जो चाहो कर लो तुझे अर्पित ये जीवन-
भाग्य अब बख़्शे नहीं इंसान से पैगाम तो लो
सब नियति का है खेला मन को तनिक आराम तो लो
लिख दिया होगा वही तुम भी वैसी नीयत बना लो
देखना हर कर्म का होता है असर अंजाम तो लो
कौन है जो हार को भी जीत सा लिखकर गया है
कोई भी हो ज़िंदगी के लेखे-जोखे के दाम तो लो
राम भी कब रोक पाया दैव के निष्ठुर वार को था
जान उल्फ़त जाएगी हो लब से मेरा नाम तो लो
है बहुत जिद्दी नियति करती वही है जो किया तय
ये बदल जाती है रब का नाम तुम बेकाम तो लो
गाफ़िले-दिलदार की कुछ तो सज़ा होनी चाहिए
'प्रीत' तो नाकाम आशिक छीन गुल-अंदाम तो लो-
जो छूट गया कुछ वो अधूरा सा रिश्ता था
बर्बाद गया कर जो वो भी मेरा हिस्सा था-
दिल की जो भी बात होती वो तिरी तस्वीर से
तू मिली मुझको इबादत ओ मेरी तक़दीर से
चाहना गलती है तो अपराध बारम्बार हो
है मिली उल्फ़त मुझे इस पल किसी तक़सीर से
रुख़-ए-अनवर जुल्फ़े-शब-गूँ सी रहूँ मैं नूर बन
रोक लूँ तुझको बाहों की ऐसी एक जंजीर से
हर ग़ज़ल मेरी को ये तौक़ीर देना ही होगा
जो पढ़े इनको तिरी निक़हत उठे तहरीर से
अब बसा है तेरा रंगो-रूप मेरी हर शिरा
'प्रीत' बच पाना दुभर तेरी ऐसी तासीर से-
जिस दिन उससे अलग होंगे उस दिन
मोहब्बत के हमसे फ़लक होंगे उस दिन
जो समाया है मेरे ज़िस्म में रूह बनकर
नहीं उससे अलग-थलग होंगे उस दिन-
सफ़र वादियों का डराने लगा है
जुदा तन से सर को कराने लगा है
यादे-महजबीं की मिटाने लगा है
वो ख़ुद से ख़ुदी को छुपाने लगा है
भाने था लगा हुस्न आरा सा मुझको
दग़ाबाज़ गुल फिर खिलाने लगा है
भूले से नहीं देते दस्तक कहाँ गुम
जाऊँ कैसे मुझको भगाने लगा है
वादी यादों की आज सुनसान सी है
कोई माहिरा सा सताने लगा है
तड़प ज़िंदा रखनी जरूरी मिलन की
यही राज कब से बताने लगा है-