Ram Raj   (RAM RAJ RAJASTHANI)
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Joined 30 November 2019


शाइर

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9 APR AT 21:30


मानवीय भावनाओं में
धार्मिक भावना
सबसे कमज़ोर क़िस्म की होती है
ज़रा सी बातों से आहत हो जाती है

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5 APR AT 19:27

कोई कश्मकश में है वो किसी ग़म से डर रही है
दिल में है प्यार लेकिन मुँह से मुकर रही है

वो अपनी सुना रही है मैं अपनी सुना रहा हूँ
दोनों की भावना यूँ टकरा के मर रही है

इस दिल की दास्ताँ मैं किसको सुनाऊँ आख़िर
यहाँ सबकी ज़िंदगानी दुख में गुज़र रही है

कमसिन हसीं कली से खाया है ऐसा धोका
रंगीन ज़िंदगी भी दिल से उतर रही है

आती नहीं है यूँ ही फोटो में भीगीं पलकें
मुद्दत से आँख मेरी अश्क़ों से तर रही है

थे साज़िशों का हिस्सा उसके हर इक बहाने
मैं समझ रहा था के वो दुनिया से डर रही है

मेरे क़त्ल का भी इल्ज़ाम राज आया है मुझी पर
पत्थर की गुनहगारी शीशे के सर रही है

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1 APR AT 19:09

पार्ट टाइम नंबर से किया उसे
पहली बार कॉल
सोचा आवाज़ से पहचान लेगी
लेकिन ऐसा नहीं हुआ
कॉल उठाते ही उसने पूछा
कौन..?
मैंने कहा
नहीं पहचाना !
उसने कहा
नहीं !
मैंने कॉल काट दिया
ऐसा कई बार हुआ हमारे बीच
वो पहचान नहीं सकी
मैं बता नहीं पाया
रेगुलर नंबर से कॉल करने की हिम्मत
नहीं थी मुझमें
और उसमे रूबरू बात करने की
हम दोनों मारे गये
एकदूसरे की मनमानियों में

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26 MAR AT 19:41

हर इक की ज़ीस्त में कुछ कश्मकश तूफ़ान लाती है
फ़क़त तू ही नहीं ऐ दिल जिसे मुश्क़िल सताती है

ये तेरा मसअला है तू मुहब्बत करता है उससे
न उसको ख़्वाब आते हैं न तेरी याद आती है

जहाँ में कुछ नहीं ऐसा जिसे जाँ से अधिक चाहो
अजीज़ों बेवक़ूफ़ी में हमेशा जान जाती है

मुहब्बत करनी ही है ग़र तुझे तो ख़ुद से कर प्यारे
ये बाबू हाबु कहने वाली बस पागल बनाती है

मैं पीछे चलने वालों को कभी नइ देखता मुड़के
मेरी ये ही बुरी आदत मुझे आगे बढ़ाती है

जो नज़रें फ़ेर लें तुमसे पलटकर उसको मत देखो
जो जितनी हल्की होती है वो उतना भाव खाती है

उसे कह अलविदा ऐ राज चाहत याद कर माँ की
तेरी हो ही नहीं सकती जो तेरा दिल दुखाती है

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22 MAR AT 18:22

दीप उल्फ़त का ग़र नहीं बुझता
आँख फिरती न तेरा मुँह मुड़ता

तुझको मंज़िल मिली विरासत में
राह मिलती तो पाँव भी उठता

सिर्फ़ तस्वीर अच्छी आती है
मुस्कुराने से ग़म नहीं छुपता

आने वाले का अहतिराम करो
जाने वाला कभी नहीं रुकता

आँख झुकती है ग़ैर हैं हम ग़र
एक होते तो ये जहाँ झुकता

दिल का धागा महीन इतना है
टूट जाए तो फिर नहीं जुड़ता

राज अपनाया ही नहीं तू ने
साथ क्या देता बात क्या सुनता

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20 MAR AT 21:06

किसी से मशवरा करता न कोई ज्ञान लेता है
मेरा दिल इक नज़र में प्यार को पहचान लेता है

यक़ीं सबसे अधिक मैं सिर्फ़ अपने दिल पे करता हूँ
ये वो करके दिखाता है जो कुछ भी ठान लेता है

मेरी मुश्क़िल बढ़ाती है मेरे दिल की ये कमज़ोरी
किसी के मुस्कुराने को मुहब्बत मान लेता है

बड़ी नादान हो तुम तो तुम्हें ये भी नहीं मालूम
तुम्हारी आँख का काजल किसी की जान लेता है

वो अच्छे से समझता है दिखावे की मुहब्बत को
तुम्हारे घर जब आता है फ़क़त जलपान लेता है

लुभाती है दिलों को शख़्सियत उस शख़्स की यारों
न जो एहसान करता है न ही एहसान लेता है

नया होता नहीं कुछ राज इन शादी विवाहों में
जगह बस जानने वाले की इक अनजान लेता है

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16 MAR AT 19:20

दुखों से तर रही है छोड़ के मुहब्बत वो
बस आह भर रही है छोड़ के मुहब्बत वो

हमारे बाद किसी ने उसे नहीं चाहा
इधर उधर रही है छोड़ के मुहब्बत वो

समझ अब आई है ताक़त उसे मुहब्बत की
ख़ुदी से डर रही है छोड़ के मुहब्बत वो

दिलों का मेल कहाँ होता है विवाहों में
बदन पे मर रही है छोड़ के मुहब्बत वो

मक़ाम-ए दिल कहीं आबाद होते देखा है
किराए पर रही है छोड़ के मुहब्बत वो

उठा के हाथ अज़ीज़ों दुआ करो दिल से
विवाह कर रही है छोड़ के मुहब्बत वो

मेरे रक़ीब को या रब अता कर उम्र बड़ी
उसी के घर रही है छोड़ के मुहब्बत वो

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3 MAR AT 20:15

मेरी साँस और धड़कन घबराए चलते चलते
डर भी है कोई दिल को ले न जाए चलते चलते

चाहत के रास्तों पे चलना बड़ा कठिन है
इसमें हज़ार राही भरमाए चलते चलते

क्यूँ ऐ मेरे ख़ुदाया ख़ुशियाँ कभी न आई
जैसे मेरी ज़िंदगी में दुख आए चलते चलते

नहीं कोई वज़ूद यारा इक दूजे के बिन अपना
दिल मेरा धड़कनों को समझाए चलते चलते

जाने के बाद फिर से है लौटना बुरा हम
तेरे शहर में तेरे बिन पछताए चलते चलते

ग़म-ए-हिज़्र में भी तेरे न बहाया एक आँसू
हम दौर-ए-इश्क़ में भी मुस्काए चलते चलते

ये सोच के मेरा दिल उसकी डगर न छोड़े
मुमकिन है वो किसी दिन मिल जाए चलते चलते

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29 FEB AT 18:01

मुझे जन्म देने वाली माँ के अलावा
दाई भी मेरी जाति की नहीं थी
न मैं मेरी जाति के बच्चों साथ खेला
न कभी पढ़ा
न पढ़ाया मुझे मेरी जाति के अध्यापकों ने
न दोस्त बने मेरे
मेरी जाति के लोग
न प्यार मिला मुझे जाति में
न आर्थिक मदद मिली मुझे जाति वालों से
किराए से भी नहीं रहा मैं कभी
अपनी जाति के मकानों में
मेरी परवरिश ,मेरी शिक्षा ,
मेरा चरित्र निर्माण मेरी जाति से बाहर हुआ
मेरी मौत का दुःख भी
सभी जातियों को होगा
जाति के बारे में मेरी समझ बस इतनी हो सकी
जाति बहुत हल्क़ी चीज़ है
हल्की नज़र से देखने पर ही दिखती है

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26 FEB AT 22:48

तुमने अपने सुख-दुःख सुनाए
मैंने अपने
मैंने तुम्हारा हाल-चाल पूछा
तुमने मेरा
हमने एक दूसरे के साथ अनुभव बाँटे
दुआएँ भी माँगी,
मदद भी की
एक दूसरे की
उम्र गँवा दी हमनें
लेन-देन में
जबकि हमे
साथ काटने चाहिए थे सुख-दुख के लम्हें
जीने चाहिए थे ख़ुशियों के पल
करनी चाहिए थी
भावनात्मक और आर्थिक साझेदारी
काश हम समझ पाते
साथ का महत्व
लेन-देन से पहले साझेदारी का अर्थ

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