मुझे देते हैं दर्द बस छोटी बातों के खंजर रफ़ीक,
मैं बड़े घावों का मलहम रखता हूं ,
रहता हूं खामोश महफिलों मे अक्सर,
साथ मे अपने बस एक कलम रखता हूं ।-
जमाने को देख कर, खुद को आजमाना पड़ रहा है।
न चाहते हुए भी थोड़ा मुस्कुराना पड़ रहा है ।।-
मैं भी लश्करी हूं अपनी चाहतों का रफ़ीक
मैंने भी अपनी ख्वाइशों की कुर्बानी दी है-
यूं ही नहीं रहा होगा वो शख्स खामोश उस शोर में
कुछ तो दिल -ए- नादान की मजबूरी रही होगी
बहता हुआ दरिया न रोक सका आंखों के बांध से
या खुदा कुछ तो ख्वाइश अधूरी रही होगी-
फ़िज़ाओं मे जो ये सर्द हवाओं का पहरा है
जनवरी को दिसम्बर के जाने का गम गहरा है-
मैं जो होता अगर शायर कभी
उसकी आंखों को चिराग लिखता,
मैं जो लिखता अगर चांद उसको
खुदा कसम बेदाग लिखता-
दर बदर भटकता रहा मोहब्बत का जाम पाने को
इश्क के शहर मे ही बैठे थे लोग आजमाने को
जब साकी ने ही छीन लिया जाम मेरा हाथों से
ये वजह कम है क्या दिल का मरीज़ हो जाने को-
मैं छुपा लेता हूँ गम अपने
अब खुलासा नहीं करता
अब हँस लेता हूँ आदतन
बस तमाशा नहीं करता-
मैं इश्क़ मे बहुत मतलबी हूँ रफीक
मुझे मेरे महबूब की खुशी चाहिए
मैं हर शख़्स को रुसवा कर दूं
मुझे बस उसके चेहरे पे हँसी चाहिए-
वो जो सम्भाल नहीं सकता लफ़्ज़ मेरे
कैसे मेरे दिल को सम्भाल पाएगा
बिखरा देगा टुकड़ों को दिल के मेरे
या फिर रुसवाई मे कमाल कर जाएगा-