फ़िज़ाओं मे जो ये सर्द हवाओं का पहरा है
जनवरी को दिसम्बर के जाने का गम गहरा है-
मैं जो होता अगर शायर कभी
उसकी आंखों को चिराग लिखता,
मैं जो लिखता अगर चांद उसको
खुदा कसम बेदाग लिखता-
दर बदर भटकता रहा मोहब्बत का जाम पाने को
इश्क के शहर मे ही बैठे थे लोग आजमाने को
जब साकी ने ही छीन लिया जाम मेरा हाथों से
ये वजह कम है क्या दिल का मरीज़ हो जाने को-
मैं छुपा लेता हूँ गम अपने
अब खुलासा नहीं करता
अब हँस लेता हूँ आदतन
बस तमाशा नहीं करता-
मैं इश्क़ मे बहुत मतलबी हूँ रफीक
मुझे मेरे महबूब की खुशी चाहिए
मैं हर शख़्स को रुसवा कर दूं
मुझे बस उसके चेहरे पे हँसी चाहिए-
वो जो सम्भाल नहीं सकता लफ़्ज़ मेरे
कैसे मेरे दिल को सम्भाल पाएगा
बिखरा देगा टुकड़ों को दिल के मेरे
या फिर रुसवाई मे कमाल कर जाएगा-
ये जो घूमते है नए आशिक शहरों मे
इनसे कहो मेरी बातों पे शक ना करे
रहना हो जिन्दा अगर जवानी मे
खुदा की कसम कभी इश्क ना करे-
अगर वो ना समझे खुद को चाँद मेरा
मैं भी उसका आसमान नहीं
उसको नहीं है अगर चाहत इश्क की
हमें भी दिल लगी का अरमान नहीं-
उलझा हुआ हूँ इस कदर जिंदगी की उलझनों मे
फुर्सत से भी रहने की फुर्सत नहीं है-
मैं लिखूं जो कभी तुझपे शब्द अपने
तुम मेरे जज्बातों की किताब हो जाना,
मैं लिखूं जो नशा इश्क का कभी
तुम मेरी चाहतों की शराब हो जाना l-