तुम एक रोज़ गर मुझसे बिछड़ जाओगे,
सच-सच बताना, क्या पूरी तरह भूल पाओगे?
मेरे ख़तों का क्या करोगे?
क्या उन्हें देखकर मुस्कुराओगे,
या कहीं किसी ज़मीन में दफन कर आओगे?
किसी से ज़िक्र करोगे या यूँ ही मेरे नाम से मुकर जाओगे?
किसी ख़ूबसूरत लम्हे की तरह याद करोगे,
या किसी ख़्वाब की तरह भूल जाओगे?-
क्या ही समझता वो मेरे खतों की गहराई
जब मायने थी जज्बातों से ज्यादा हाथों की लिखाई-
अपनी तमाम ख्वाइशों को दफ्न करना मैने सीख लिया था
जिस दिन मैंने पापा के साथ मेले जाना छोड़ दिया था-
कुछ दिल का हाल सुनाने को कुछ अपनी बात बताने को
तुम मिलने मुझसे आते रहना मेरा दर्द भुलाने को
कभी वक्त तुम्हारे साथ न हो करने को कोई बात न हो
तुम मिलने मुझसे आया करना कुछ अच्छा वक्त बिताने को
जब राहें सारी आसान हो जब पूरे सारे अरमां हो
कुछ वक्त बचाकर आना तुम तब मेरा साथ निभाने को
जब सब कुछ हासिल हो जाए जब मंजिल सारी मिल जाए
फिर कोई बहाना बना ही लेना मिलने मुझसे आने को
तुम भी थोड़ा हंस लोगे कुछ हम भी खुश हो जाएंगे
कुछ वक्त मिलेगा साथ साथ फिर एक रोज बिछड़ जाएंगे
हम फिरसे राहें देखेंगे तुमसे फिर मिल पाने को
फिर रोज दुआएं मांगेगे एक रोज तुम्हें मिल पाने को-
तमन्नाओं के शहर से दूर किसी दरिया किनारे बसना चाहता था
वक्त की कैद में पड़ी जिंदगी से कुछ पल सुकून के चाहता था
चाहता था एक असल किरदार निभाना नकाबपोशों के रंगमंच पर
खैर अब बना रहा हूं खुदको उस काबिल
जो जिंदगी मैं कभी जीना ही नहीं चाहता था-
शिकायतें बहुत थी जब तक इश्क था तुमसे
खामोशी तुम्हारे गैर हो जाने का अंजाम थी-
एक रोज फिर तुम्हारा जिक्र हुआ एक रोज फिर तुम्हारी याद आयी
मैं भूल गया था जिस किस्से को वो कहानी फिर दोहरायी
मैं सोचता था मोहब्बत कितनी बेहिसाब चीज है
फिर क्यों तुम्हें मोहब्बत रास न आयी
फरेब के जमाने में मैं तलाशता रहा इश्क
मोहब्बत के काबिल नहीं है ये दुनिया ये बात इस दिल को क्यों समझ न आयी
खैर एक रोज फिर तुम्हारा जिक्र हुआ न चाहते हुए भी तुम्हारी याद आयी
क्यों तुम मेरी कहानी का हिस्सा बने क्यों उस रोज वो शाम आयी-
कि मैंने उसके इंतजार में एक उम्र काटी है
एक रोज मिलने कि दुआ हर रोज मांगी है
मैं कह न सका उससे हाल-ए-दिल अपना
अक्सर जज़्बातों की नकल कागज पर उतारी है
यूंही नहीं सीखा मैने लिखना बेवजह
मैने अकेलेपन में एक उम्र गुजारी है-
मेरी रात न गुजरी मैं तेरा इंतज़ार करता रहा
अपनी बातों में तेरा ज़िक्र बार बार करता रहा
करता रहा याद हर लम्हा तुझे
तेरे लौट आने का इंतज़ार हर रोज करता रहा
तुझसे दूरियाँ मुझे कभी रास नहीं आयी
हर शाम की चाय के साथ तुझे याद करता रहा
जो गुजरी नहीं रात तेरे बिन
उस चाँद से तेरी बात उस रात करता रहा
यूँ तो सिकवे कई है जिंदगी से मगर
तेरे दूर होने की शिकायत मैं दिन रात करता रहा-
जो नींद नहीं आयी तो उसे यादों में सोचता रहा
पलके हुई हल्की तो ख्वाबों मे खोजता रहा
हालातों ने कर दिया जुदा तुझसे मुझे
यही सोचकर हर रोज हालातों से लड़ता रहा
तमाम उम्र गुजारनी थी जिसके साथ
उसे बस चंद लम्हों के लिए रोकता रहा-