Rakesh Kumar   (केशाय)
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Joined 22 September 2018


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Joined 22 September 2018
20 APR AT 22:51

हमनें सुनाई नज़्म अपनी,
असर तो देखो महफ़िल में,

जिसने समझा,
जिसने... समझा.......
उसने वाह वाह किया,

और
जिसने महसूस किया,
वो खामोश रह गया।

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16 APR AT 20:05

जब जब मुझको तेरा खुबसूरत अक्ष दिखा है।
मैंने तारीफ में तेरे लिए कागज, श्याही, कलम ओर कुछ लफ्ज़ लिखा है।।

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3 MAR AT 10:55

कुछ हम भुलाते,
कुछ तुम भुला देती,
ओर फिर हमें मौत बुला लेती।

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21 NOV 2023 AT 9:46

पुराने एलबम निकालें हैं,
हर कोई, पुछता क्या देख रहे हैं?

हमने भी कहा,
नम सी आंखें, धीमी सी आवाज में,
यादें कुरेद रहे हैं,
यादें कुरेद रहे हैं।

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28 SEP 2023 AT 23:31

लिख कर रखे थे अहसास,
जो अपने पिटारे में बंद करके।
उन्हें आज सामने रख दिये हैं,
खुद को सताने के लिए।

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4 JUN 2022 AT 22:53

मैं जो कभी-कभी दो लफ्ज़ लिखता हूं,
दरअसल शब्द नहीं मैं ज़ख्म लिखता हूं।

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30 MAY 2022 AT 22:28

मजबूरी के छाले लग गए हैं,
मेरे पैरों में,
शायद यही कारण हैं,
कि मैं धीमें चल रहा हूं।

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4 MAY 2022 AT 18:27

ए मौसम,
न कर- न कर,
अभी कुछ दिन हुए थे,
तेरी गरमाहट की आदत हूए।

दो पल की ठंडक,
और ये बरसात वाली शरारत,
न कर- न कर।

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4 MAY 2022 AT 11:26

मेरी किताबों के पन्नों पर,
उन पन्नों की लिखावट पर,
उनकी झलक दिखाई देती हैं।

और हम पढ़ दे उन पन्नों की नज़्म अपनी,
तो उनकी आहट सुनाई देती हैं।

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1 MAY 2022 AT 9:39

ताज महल बनाया इन हाथों से,
हर शहर सजाया इन हाथों से,
घर अमीरों का हो, गरीबों का,
वो किसी भी धर्म का हो, किसी भी जाति का,
सबकी इक-इक ईंट सहेज के लगाया जिस हाथों से,
बस खुद का घर न बनाया इन हाथों से,
न अपना आंगन सज़ा पाया इन हाथों से।

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