Rakesh Chawla   (© 'तलब'...🤔)
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Joined 22 January 2019


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17 HOURS AGO

वही लम्हात जब हम अपने साथ होते हैं !

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4 MAY AT 18:17

हँसना तो उसकी रहमतों में ख़ास रहमत है
न जाने लोग क्यों हँसना हंसाना भूल जाते हैं

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3 MAY AT 20:04

वतन-परस्ती के पर्दे में ख़ुद-परस्ती क्यों
क़सम जो खाई उन्हें किस लिए भुलाते हो

वतन ही दांव पर किस लिए लगाते हो

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3 MAY AT 19:31

इश्क़ सिर्फ़ एक एहसास है 'तलब' महसूस करने का
उसे हम लिख नहीं सकते, उसे हम कह नहीं सकते

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3 MAY AT 19:05

ख़िरद से पेशतर वो मशवरा दिल से तो कर लेते
मरासिम को बचाने के लिए इतना तो कर लेते

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1 MAY AT 19:26

दरिया होता
सिर्फ़ रवानी लिए
बहते जाना

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30 APR AT 20:38

इबादत के लिए काफ़ी नहीं तस्बीह घुमा लेना
किसी मंदिर या मस्जिद में पहुँच कर सर झुका देना
इबादत है किसी बेसहारा को आसरा देना
इबादत है किसी मक़रूज़ का क़र्ज़ चुका देना
किसी मज़लूम को ज़ालिम से छुड़वाना इबादत है
किसी नादार की मुश्किल में काम आना इबादत है
इबादत है यह जीवन कौम की ख़ातिर लगा देना
इबादत है वतन के वास्ते सर को कटा देना
इबादत है किसी भूखे को दो रोटी खिला देना
इबादत है किसी नंग-धड़ंग को कपड़ा दिला देना
किसी बर्बाद को आबाद कर देना इबादत है
किसी नाशाद को दिलशाद कर देना इबादत है

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30 APR AT 18:30

लगाओगे तुम्हीं मरहम मेरे दिल पर

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30 APR AT 10:06

ए ज़िन्दगी शिकवा तुझसे है नहीं कोई
मसले पे कम-ओ-बेश गिला है नहीं कोई
इक वक़्त था ख़ुद को तक़सीम किया सबमें
इक वक़्त आया है कि अपना है नहीं कोई
हम सब के बीच रहकर महफूज़ समझते हैं
पीछे जो मुड़ के देखा अपना है नहीं कोई
जिन क़द्रों को जीने पर तारीख़ नाज़ करती
उन क़द्रो को इस दौर में पुर्सा है नहीं कोई
काबा की ज़ियारत की काशी की यात्रा
ख़ुद में तलाश उसकी करता है नहीं कोई
बर-वक़्त नहीं बदली कल के लिए दुनिया
रहने के लिए और दुनिया है नहीं कोई
नाकाम मोहब्बत में हम हो गये 'तलब'
कुछ और काम हमको आता है नहीं कोई

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26 APR AT 19:06

सहलाना ज़रूरी है ग़मों को भी यहाँ पर
ये ज़िन्दगी ख़ुशियों का ख़ज़ाना भी नहीं है
इक याद का सागर है मिरे ग़म में कहीं पर
सो मयकदे में ग़म को डुबाना भी नहीं है

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