कभी तो आ जाया करो
इस तरफ़ भी भूले भटके…
मकान पुराने हैं यहाँ इस तरफ़,
टूटे फूटे भी हैं बेशक,
पर प्यार की ख़ुशबू से महकते हैं…
उस तरफ़ के बर्फ़ीले महलों में तो
ख़ून भी नीला हो जाता है सुना है…
यहाँ आओ, ख़ून में ही नहीं
यहाँ जज़्बातों में भी गर्मी पाओगे…
क्या रखा है उन सजी-धजी वीरान हवेलियों में
वहाँ तो अपनी ही औलाद से मिलने को तरस जाओगे…
यहाँ मुफ़लिसी है, तंगी है सहूलियतों की,
पर मोहब्बत चप्पे चप्पे पर भरपूर पाओगे…
अपनों की तो ख़ैर बात ही क्या करे कोई,
यहाँ अजनबियों की भी बाँहों को खुला पाओगे…
आ के देखो खुले दिल से खुले नज़रिये से कभी,
यक़ीन मानो लौट के फिर उस तरफ़ नहीं जाओगे…
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बुढ़ापा और उसपर बीमारी,
अच्छे अच्छों को हिला देती है…
इंसान को एक-एक दिन के
छोटे-छोटे टुकड़ों में जीना सिखा देती है…
सुबह आँख खुली तो रात बिस्तर तक
जाने की जुगत होती है,
अगली सुबह न खुली तो ठीक,
वर्ना फिर एक, फ़क़त एक दिन
बिताने की मशक़्क़त होती है…
बस यही सिलसिला बुढ़ापे की ज़िंदगी में
एक-एक दिन की किश्तों की कहानी का है…
सिर्फ़ एक किश्त के रुकने के,
साँसों के थम जाने की वज़ह बन जाने का है…-
कभी कभी जब रातों में नींद आवारगी पर उतर आती है,
और लाख रोकने पर भी कम्बख़्त कहीं भाग ही जाती है,
तब तमाम रात ये तय करने में निकल जाती है
कि कौन सी करवट जिस्म को ज़्यादा आराम देती है…
कुछ वैसे ही जैसे नज़र के चश्मे का नम्बर लेते वक़्त
बिना किसी शक औ’शुबा के ये तय करना
कि नम्बर कौन सा बेहतर है, ये वाला या पिछला वाला…
उधर, देर रात आवारा नींद जैसे ही दबे पाँव आँखों को खटखटाती है,
तभी घड़ी, अलार्म देकर अपनी वफ़ादारी का सबूत देने लगती है…
बस यारों ज़िंदगी यूँही रातों, आवारा नींद, करवटों
और अलार्मों के चक्रव्यूह में फँसकर बर्बाद हुई जाती है…-
वक़्त कितना बदल गया है ये इस बात से जाना,
कि माँ-बाप झिझकते हैं इस सवाल पे कि रोटी खाओगे..?-
वक़्त आएगा जब ये दुनियाँ आदतन,
मेरी शख़्सियत की धज्जियाँ उड़ाएगी…
हर चिथड़े को दूरबीन की आँखों से घूरेगी,
और इल्ज़ाम बेहिसाब लगाएगी…
मगर मेरे महबूब कोई शुबहा,
कोई डर न रख दिल में अपने,
तेरी रुसवाई हो जहाँ में,
वो ऐसा कोई भी चिथड़ा न ढूँढ पाएगी…
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कभी ऐसा भी वक़्त आता है ज़िंदगी में
कि किसी की याद को छूकर
कोई बेजान चीज़ अचानक जी उठती है
और फिर लम्बे समय तक जज़्बातों से
लबरेज़ रहती है…
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ऐसा नहीं कि हमें ख़ुशियों से दुश्मनी है कोई
पर अपने ग़मों से बेवफ़ाई हमसे की नहीं जाती…
जिसने भी दिए जितने भी दिए, अब ये ग़म मेरे हैं
इनसे मोहब्बत न सही पर बेरुख़ी भी इनसे की नहीं जाती…
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चलो ये जश्न-ए-आज़ादी इस साल
कुछ इस तरह मनाया जाए,
कि आज़ादी के रहनुमाओं की तस्वीरों से
कीचड़ को हटाया जाए…
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इसका तो हमें था इल्म कि तुम नाराज़, ख़फ़ा थे हमसे
पर यूँ चुपचाप महफ़िल छोड़ जाओगे इसका हमें गुमान न था…
भटक रहे हैं इस उम्मीद में नाकामियाँ झोली में लिए
कहीं मिल जाए कोई बाक़ी निशाँ तो ढूँढ लेंगे तुम्हें…
यक़ीं मानो जब कोई गिले शिकवे लिए दूर चला जाता है
साथ अपने किसी के दिल का सुख चैन भी ले जाता है…
कोई लानत, कोई तोहमत, कोई बद्दुआ ही भेजो
सब मंज़ूर है हमें, हमारे होने का कोई अहसास तो भेजो…
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सम्भल नहीं रही है तुझसे ये दुनियाँ अय ख़ुदा तो मिटा दे इसे,
सबक लेकर ग़लतियों से अपनी, फिर कभी इसे बसा लेना…
ग़रज़ तेरी थी, शग़ल भी तेरा था इसे बसाने का तो तू भुगत,
हम बंदों को क्यों सता रहा है ये ख़ूँख़ार खेल खिलवा कर…-