वो समझता था, जानता भी था सब पर ख़ामोश रहता था
वो डरता था समाज के तानों से घर वालों के उलाहनों से…
इधर हमारे भी हालात उसके हालात से जुदा नहीं थे
आज़ाद हम भी नहीं थे ज़िंदगी की ज़िम्मेदारियों से…
तड़प जो दोनों तरफ़ थी, कभी जिस्मानी भी थी शायद
तड़प वो रूहानी हो गई है, निकलकर बाहर जिस्म से…
न इज़हार की ज़रूरत है न ज़रूरत अब इकरार ही है
न दरकार दीदार की है अब, आज़ाद हो के ज़िंदगी से …-
हम उड़ते हुए ख़यालों को पकड़ने का काम करते हैं
फिर गूँध कर लफ़्ज़ों के आटे में उन्हें,
दिमाग़ की खुराक बनाने को अंजाम देते हैं…
मुफ़्त बाँटते फिरते हैं लोगों में फिर ये नुस्ख़ा अपना
कि कुछ लुत्फ़ आ जाएगा उन्हें ये उम्मीद रखते हैं…
बस इसी बेगारी में आजकल हम मशगूल रहते हैं
घर वाले भी ख़ुश कि अब हम अपने में मस्त रहते हैं…-
राजनीति शालीनता से गिर कर अश्लील हो गई हो जहाँ
देशभक्ति भी चंद लोगों की बपौती बन गई हो जहाँ
न्याय का रथ किसी एक ही दिशा में दौड़ता हो जहाँ
भ्रष्टाचार की परिभाषा भी मुँह देख कर बदलती हो जहाँ
ऐसी जगह रहने से तो बेहतर है अब किसी गुफ़ा में रहा जाए
ऐसे दौर में पैदा होने के अभिशाप को अकेले में जिया जाए…-
कहीं सैलाब कहीं तूफ़ान कहीं ज़लज़लों की मार है
जो क़ुदरत से बच गए उन पर सियासत की मार है…-
वो घूम घूम कर दुनिया को बदलने की बात करते हैं
मुझे ये फ़िक्र है मेरे जो क़र्ज़दार हैं, वो भी न बदल जाएँ कहीं…-
मैं खड़ा रहा वो निकल गई सामने से
जैसे किसी खंभे के सामने से गुज़री हो…
कुछ दूर वो गिर पड़ी टकरा के एक खंभे से
और मेरा ही हाथ थामना पड़ा उसे उठने को…-
खेल शुरू कर ही दिया है तो इसे अंजाम तक जाने दो…
बर्बादी तो तयशुदा है इसे अब हो ही जाने दो…-
अब क्या करूँ कामना उससे सब कुछ तो पास है
जो मिल गया सो काफ़ी है बाक़ी उस पर उधार है…-
ख़त लिखकर हम डाल देते हैं डाक में आते जाते,
पढ़ लेते हैं वो कभी कभार उसे चलते फिरते…
न हमें इंतेज़ार रहता है जवाब मिलने का,
न उन्हें है फ़ुर्सत हमें याद करने की बैठते उठते…
तसल्ली इतनी है कि पहचानते हैं वो हमें अभी तक,
उन्हें भी है भरोसा कि याद है हमें पता उनका अभी तक…
पौधे में जान रहती है मिलती रहें उसे कभी कभी दो बूँद पानी की
ये बेहतर है इससे कि पौधा डूब ही जाए बाढ़ में किसी नदी की…-
लहज़ा-ए-गुफ़्तगू का मिज़ाज क़ाबिल-ए-ग़ौर होता है
ज़रा सा बहका और रिश्तों का पुल बिखर कर ज़मीं पर होता है…-