मास्क के अंदर दिखते नहीं
काँपते हुए होंठ
नाक के निचले हिस्से का हिलना
या आपकी जाली, नकली हँसी
मास्क के बाहर दिखते हैं
आपके माथे पे बनी रेखाएं
आपकी विशुद्ध वास्तविक हँसी से
आंखों के पास बानी कौओं के पंजों से निशान
मास्क के साथ लोग देखने लगें हैं आंखों को
देखने लगे हैं आंखों में दिखने वाले डर
देखने लगे हैं लोगों के आँसू और डर को निगलना
मास्क के साथ लोग परखने लगें हैं लोगों को।
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कभी जगी जगी
कभी सोइ सी
हम पिघला सोना प्याले में
तुम मूरत ढली ढलाये हो
हम अक्षर अक्षर बिखरे हैं
तुम पुस्तक लिखे लिखाये हो
हम खुद में खुद का बिखराव
तुम जुड़े जुड़े सब अलगाव
हम पृष्ठ पृष्ठ ही फैले हैं
तुम गीता बनकर छाए हो।-
तुमने कहा हम सुनने के काबिल नहीं
और तुम्हारी बातें सुन सुन कर हमने
तुम्हें खुदा बना लिया।
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रात रानी के फूलों की तरह हमारी बातें
धीरे चलते हुए दो अजनबियों
के कनिष्ठ उंगलियों की
तरह टकरा जाती हैं
और झट से अलग हो जाती हैं
जैसे कुछ देर रह जाती तो
प्रेम हो जाता
जैसे आंगन में बिखरे हुए रात रानी को
कई दिनों से समेटा न गया हो
और हमारी बातें चांदनी की तरह
जिसमे रात रानी मुस्कुरा पड़ी हो
जैसे उछल कर पेड़ से रात रानी को तोड़ने
की कोशिश में हमारी बातें असफल रही हो
और हंस दिया हो रात रानी ने ज़ोर से
और झुका दिया हो प्रेमी को
बाध्य कर दिया हो उसे
समेटने को रात रानी मात्र अपनी प्रेमिका के लिए
हमारी बातें रात रानी के फूलों की
तरह महकती हैं
और बस हँसाती हैं हमें
और हम बस चुनते रहते हैं रात रानी।
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एक बूढ़ी महिला
गंगा घाट पर सारे कपड़ों को धोकर
पवित्र कर लेती है
राम-राम कहते उतर जाती है नदी में
कांपते अंजुली में जल भरती है
और अर्घ्य दे देती है सूर्य को
निकलते हुए किनारे की जलोढ़ मिट्टी में
धंसता है पाँव
छलकती है कमण्डल की गंगा
और सिर से गिर जाता है एक 'पवित्र कपड़ा'
बूढ़ी राम-राम कहते आगे बढ़ती है
गंगा 'पवित्र कपड़े' के साथ आगे बढ़ती है
अंधेरे में
कपड़े के डिटर्जेंट चमकते हैं गंगा में
चंद्रमा के साथ
और ठहरा रहता है सूर्य
देखता रहता है सबकुछ।
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किया जाता है श्रृंगार
पहना दी जाती है
लाल साड़ी, लाल चूड़ियाँ, लाल बिंदी
लाद दिए जाते हैं गहने
कराये जाते हैं
अनुष्ठान, वेदपाठ
पढ़े जाते हैं मंत्र
और लकड़ियों के बीच रख दिया जाता है
पार्थिव शरीर
छिप जाते हैं घाव साड़ी में
नुचे हुए निशान गहनों में
टपकता है खून एड़ियों से
पर बता दिया जाता है उसे आलता
अश्रु बहाते हैं समाज के ठेकेदार
छाती पीटती हैं-
खम्भों के पीछे से निगरानी करने वाली औरतें
घटों में बांधे जाते हैं गंगाजल, उसके केशों की तरह
तुलसी रखते हैं -
उसकी जीभा को लगाम लगाने वाले लोग
फिर जला दी जाती है चिता
अंधेरा होने से पहले पहले
भस्म को प्रवाहित कर दिया जाता है गंगा में
और-
प्रथम बार स्वतंत्र होती है एक स्त्री।
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तुम न दिखते हुए भी प्रत्यक्ष हो
चराचर में हो
मैं दिखते हुए भी ओझल
इसीलिए मैं बनती हूँ तुम्हारी जीवित पत्नी
भोग लगाती हूँ तुम्हें
प्रतीक्षा करती हूँ तुम्हारी
श्रृंगार करती हूं और
बन जाती हूँ नृत्यांगना
तुम्हरे लिए
पर कभी देखा नहीं तुम्हें
तुम्हारे भक्त देख पाते हैं तुम्हे शायद
पर स्वीकारते नहीं मुझे तुम्हारी पत्नी
नहीं बन पाती में रुक्मणी
मुझसे एक रात्रि का वचन लेते हैं
पंडा औए ब्राह्मण की कल मैं भी
उनकी तरह तुमको देख पाउंगी
पर तुम अब भी नहीं दिखते
तो स्वीकार कर लिया है मैनें कि
मैं एक देवदासी हूँ
और सारे पंडित "देव"
या शायद मात्र पवित्र प्रांगण की वैश्या!
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मैं हमेशा दौड़ती हूँ
कश्मीर के डल झील से
शाम में कोणार्क तक
कई सारे जगह भागती हूँ
तो खो जाती हूँ किसी
नक्काशी में जो ताजमहल पे
की गई थी सोमनाथपुर में नहीं
भूल जाती हूँ कि हम्पी ने कोणार्क
का रथ लिया या कोणार्क ने हम्पी का
और भूल जाती हूँ कि जिस
बीजापुर की सीढ़ियों पर चढ़
कर गुम्बज़ के नीचे अपना
नाम मैंने नहीं चिल्लाया है
वहां मैं गयी ही नहीं हूँ
गुम्बज़ से नीचे कूदती हूँ
और गिर जाती हूँ-
चित्तौड़गढ़ के विजय स्तंभ के नीचे
और मेरी उड़ान चलती रहती है
इतिहास में।-
Courtesan's street
हम्पी का "सुले बाज़ार"
(कविता अनुशीर्षक में पढ़ें)-
तुम ईश्वर हो –
स्वयंभू, बुद्धिमान ब्रह्मा
मैं उसी बुद्धिमत्ता से भागती सतरूपा
तुम इस जगत को प्रकाशित
करने वाले स्त्रोत- सूर्य
मैं उसी प्रकाश से भागती चन्द्रभागा
तुम आधुनिक युग के श्रीराम
और मैं उसी पुरुषोत्तम से भागती सामान्य स्त्री
मैं भागती हूँ सतरूपा की तरह आकाश तक
और तुम प्रकट करते हो पाचवां सर ब्रह्मा
की तरह, वासना की तृप्ति के लिए
मैं भागती हूँ चन्द्रभागा की तरह
और तुम भागते हो पीछे मेरे सूर्य
की तरह, तृष्णा लिए
मैं सामान्य स्त्री-
और तुम नोचने वाले पुरुषोत्तम गिद्ध
पर -
तुम ईश्वर हो।-