जो देखती हूँ तुम्हें,
मैं एक नज़र भर कर,
तो अक़्सर सोचती हूँ,
ये शक़्ल भले हो अनजानी ,
पर क्या मैं इस रूह को जानती हूँ?
होती हैं कभी ये ख्वाईश भी,
के तुमको मैं कुछ पढ़ लुँ।
और फिर दिल ये कहता हैं,
के तुम्हें इसरार ही रहने दूँ।
जो देखु तुम्हें नज़र भर कर,
तो मैं ये अक़्सर सोचती हूँ,
क्या मैं इस रूह को जानती हूँ?
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