बचपन सूर्य की लालिमा सा सुंदर प्रभात था
मंद मंद चलती शीतल पवन का अहसास था
रिश्तों की छांव तले पलकों का आशियाना था
ममता के खुले आंगन में खुशियों का खजाना था
जाड़े की खिली धूप में सपनों के ताने बाने थे
प्रेम की अमरबेल में लिपटे खूबसूरत तराने थे
मन के दर्पण में सारे चेहरे सिमट जाया करते थे
अपनत्व की जंजीर में सब जकड़े हुए रहते थे
अपने पराए में भेद हमें कभी करना नहीं आया था
न तो हम कभी समझे न किसी ने हमें समझाया था
उस काल में हर लम्हा पंख लगा कर गुजर जाता था
सुबह से कब शाम हो जाती पता भी न चल पाता था
मन उन हसीन लम्हों को याद करके मचल जाता है
बचपन का वो मंजर जब कभी ख्यालों में आता है
-