जैसे-जैसे तिमिर का,हुआ आवरण भग्नपुष्करिणी का पद्म-वन, दिखा पंक-संलग्न 'इन्द्र' की कलम से -
जैसे-जैसे तिमिर का,हुआ आवरण भग्नपुष्करिणी का पद्म-वन, दिखा पंक-संलग्न 'इन्द्र' की कलम से
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घर आँगन जिनसे भरा,चले गये वे लोगवह भी था संयोग ही,यह भी है संयोग'इन्द्र' की कलम से -
घर आँगन जिनसे भरा,चले गये वे लोगवह भी था संयोग ही,यह भी है संयोग'इन्द्र' की कलम से
कितनी तीखी क्यों न हो, तेरी पैनी धारबिना काठ के बेंट के,काठ न कटे,कुठार !'इन्द्र'की कलम से -
कितनी तीखी क्यों न हो, तेरी पैनी धारबिना काठ के बेंट के,काठ न कटे,कुठार !'इन्द्र'की कलम से
सर्प नहीं यदि छोड़ता, अपना दंशन कर्ममलयज! तू भी त्याग मत , शीतलता का धर्म'इन्द्र' की कलम से -
सर्प नहीं यदि छोड़ता, अपना दंशन कर्ममलयज! तू भी त्याग मत , शीतलता का धर्म'इन्द्र' की कलम से
शून्य घटा जब शून्य से, रहा शून्य ही शेषशून्य शून्य से जब जुड़ा, योग हुआ निःशेष'इन्द्र' की कलम से -
शून्य घटा जब शून्य से, रहा शून्य ही शेषशून्य शून्य से जब जुड़ा, योग हुआ निःशेष'इन्द्र' की कलम से
मंदिर मस्जिद में जहाँ, रहे रात-दिन बैरहो कैसे उस गाँव में , इंसानों की ख़ैर'इन्द्र' की कलम से -
मंदिर मस्जिद में जहाँ, रहे रात-दिन बैरहो कैसे उस गाँव में , इंसानों की ख़ैर'इन्द्र' की कलम से
मज़हब मज़हब में मचा जहाँ ख़ून का फागफिर कुछ लोगों ने वहाँ , दीं बंदूकें दाग'इन्द्र' की कलम से -
मज़हब मज़हब में मचा जहाँ ख़ून का फागफिर कुछ लोगों ने वहाँ , दीं बंदूकें दाग'इन्द्र' की कलम से
बुझते-बुझते दीप यह तुझे दे रहा सीखअंधकार के द्वीप पर, सूर्यपुत्र-सा दीख'इन्द्र'की कलम से -
बुझते-बुझते दीप यह तुझे दे रहा सीखअंधकार के द्वीप पर, सूर्यपुत्र-सा दीख'इन्द्र'की कलम से
कल परझर कहने लगा"सुनिये सखे!वसंतहोता है बहुधा करुण, हर उत्सव का अंत" -
कल परझर कहने लगा"सुनिये सखे!वसंतहोता है बहुधा करुण, हर उत्सव का अंत"
चूनर से तो धुल गया, छुटा न मन से रंगअंग- अंग में आ बसा, कौन अरूप अनंग'इंद्र' की कलम से -
चूनर से तो धुल गया, छुटा न मन से रंगअंग- अंग में आ बसा, कौन अरूप अनंग'इंद्र' की कलम से