खिलखिलाती सुब्ह में शामिल हो रहे है,
तमाम सवालात गुजिश्ता रात के।
टूटने लगी है,
बिस्तर पर बिखरे सिलवटों की चुप्पी|
तुम्हारी आखों में कुछ आवारा ख्वाब
अब करने लगे है शरारत।
मत खेलो बिस्तर के मासूम सिलवटों से।
आओ कुछ ऐसा करें,
एक ज़माने से खामोश
इन सिलवटों के लबों पर,
जाग उठे शहद भरी मुस्कान।
-राजेश्वर मधुकर
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