26 JUN 2017 AT 9:15

तुम शब्द हो ना...
पहली बार जब तुम मिले...
तुतला रहे थे...
अर्थहीन, अधूरे से...
अक्षर थे तुम...
बड़े खूबसूरत.......
सब खुश थे, तुमसे मिलकर...
जब तुमने पहली बार...
"माँ".....कहा...
तुम पूर्ण हो गये...
माँ की उंगली पकड़....
भाषा की पाठशाला में....
संधि,,, समास के साहचर्य से...
तुम अर्थवान् होते गए....
पर...... अब....
तुम्हारे पर्याय...
तुम्हारे अनेकार्थी रूप का...
न जाने कब , कौन....
अपने स्वार्थ के लिए...
उपयोग कर ले...
और तुम नादान...
बहक जाते हो...
कभी ज़िहाद के नाम पर....
आतंकवादी बन जाते हो...
कभी राष्ट्रवाद के रास्ते पर....
राजनीति से छले जाते हो...
कभी जाति में बंटकर....
आरक्षण की आग फैलाते हो....
कभी दंगाईयों की भीड़ में मिलकर...
सरे राह इंसानियत को मार गिराते हो....
तुम अब हाथी के दाँत हो गये हो..
खाने के ओर, दिखाने के ओर...
मैं डरने लगा हूँ......तुमसे...
अब चुप रहने लगा हूँ..... ||

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