समय बदल गया हम भी बदल गए
कहावतें बदल गयीं, काम करने के
संदर्भ बदल गए हैं....
पहले कहावत थी कि
नेकी कर दरिया में डाल
अब कहावत है
नेकी कर न कर लेकिन मीडिया में डाल-
बेवफ़ाई भी कभी कभी जरूरी है
वरना लोग कद्र करना भूल जाते हैं...
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जो कह न पाते हैं जुबान से
उसे कागज पर उकेर देते हैं
किसी ख्याल को क्यूँ यूँही
जाया किया जाय...-
जवाब आने का सिलसिला खत्म हुआ
जवाब देने की जिम्मेदारियां भी न रहीं
अब तो ख़ामोशियां ही लुभाने लगी हैं...-
बहुत सी कमियाँ हैं मुझ में
उसमें एक खास है..
मुझे लोगों की आदत लग जाती है..-
भागते-भागते यह समझ में आया,कि अकेलापन भी एक मंज़िल है, जो एक दिन सबको हासिल होनी है...
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कि रात गुजर गई
---- राजेश अस्थाना"अनंत"
कुछ तुम्हारे गिले थे
कुछ हमारे गिले थे
कहना शुरू ही हुआ
कि रात गुजर गई
दुनिया में दूर थे
ख्वाबों में एक थे
घड़ी मिलन की आई
कि रात गुजर गई
वफ़ा की कहानी
शुरु ही हुई थी
शबाब पर आती
कि रात गुजर गई-
ऐसा मान भी किस काम का
जो दूसरों के अपमान से बढ़ता हो........
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तुम्हारी बात ख़ामोशी से मान लेना.....
यह भी अन्दाज़ है मेरी नाराज़गी का.....-
हम संबंधों में भी मशीनी प्रतिक्रिया की अपेछा रखते हैं इस लिए आम तौर से निराशा हाथ लगती है । आदमी कोई पंखा तो है नहीं कि बटन दबाया और चालू हो गया , यह जरूरी नहीं कि हमारी हर मुस्कान के जवाब में मुस्कान ही मिले, हालाँकि अपेछा यही रहती है ।
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