20 JAN 2020 AT 7:58

अरुण आलोक की जयकार बोलो।
जगत की ज्योतियों के द्वार खोलो।
जगा है नींद से ये भोर जब से,
सुनाई दे रहा है शोर तब से।
कोलाहल है ये एक नई ज़िंदगी का।
पशु पक्षी, विपिन का और पवन का।

वही आलोक है, वो ही गगन है।
वो ही स्वच्छंद सा उन्मुक्त मन है।
वो ही उन्माद मन में अा रहा।
वो ही एक भाव हिय पिघला रहा है।
जो एक उम्मीद जग को बांधती है।
निशा के अंत को शुभ मानती है।

कि देखो फूल सब मुस्का रहे हैं।
भंवर को प्रेम से पुचकारते हैं।
गगन पंखों को उड़ते देखता है।
रवि की ज्योति से दृग सेंकता है।
धरा खिल जाती है रश्मि को पाकर।
नया जीवन मिला ज्यों जाग कर।

- ©रजत द्विवेदी