सुकून
तड़पता था रोज़-ओ-शब ये तंगे दिल
तेरे तसव्वुर की असीरी से मुक्ति को
मंजूर की असीरी अपने ही ख़्वाब की
किसी सुकून के आग़ोश में खोने को
तेरे ख़्याल के अज़ाब ने बख़्शा कहां
वहां भी मेरे मुंतज़िर सुकून को
चांद के मिरे आंगन में उतरते ही
रूबरू हुआ चेहरा, तेरा ही नज़रों को
प्रस्तुति: राजकुमार गर्ग
दिनांक: 3 सितम्बर 2021-
नेमतें
जिन्दगी से
मांगा ही क्या था
चंद ख़्वाब
साथ चलती
कुछ उम्मीदें
कुछ मोहलत भी तो मांगी थी
सुकून के लिये
फ़ेहरिस्त यूं कोई लम्बी भी तो न थी
अत़ा कर सुकून
ज़िन्दगी तो फ़ारिग हो गयी
पर हम उसकी नेमतों के अज़ाब में
बस उलझ कर ही रह गये
प्रस्तुति: राजकुमार गर्ग
दिनांक: 27 अगस्त 2021
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सहजता
देखो कब कहां कैसे
उग आती हैं सलवटें
रिश्तों के अबूझ आयामों में
क्या खबर होती है तुम्हे
किस कदर लटकती जाती हैं
सलवटों की ये परतें
और गुम होने लगती है
इनके बीच देखते देखते
कुछ सहजता तुम्हारी भी
और कुछ कुछ मेरी भी
जरूरी है हर बार सहेजना
इन सलवटों को
भले ही सामना हो हमारा
उग आती इनकी
कितनी ही परतों का
इन परतों के बीच सिमट आयी
दरारों की निरंकुशता से
रिश्तों के हर आयामों को सहेजना
क्या इतना सहज होता है
तुम्हारे लिये
या फिर मेरे लिये
प्रस्तुति: राजकुमार गर्ग
दिनांक: 21 जुलाई 2021-
जिन्दगी अक्सर अपने जबाब
अधूरे छोड़ जाती है
करते रह जाते हैं हम तलाश
उन लम्हो को जो कर जाये
मुकम्मल उन अधूरे जबाब को
जो रह गये पूरे होते होते
उलझते धागों को सुलझाना
इतना आसान भी तो न होता
गर कुछ दूर तक सफर ही सही
साथ कोई हमसफर तुमसा न मिला होता
गुजरते वक्त के साथ साथ
उलझने लगती है अपनी भी जिन्दगी
बेचैन सी छटपटाती है
फिर जिन्दगी
उन अनसुलझे धागों की तरह
उसे सुलझाने की मशक्कत भी तो
रहम नहीं करती किसी तरह
जिन्दगी की बेरहमी हमने पहले भी देखी है
आज भी बस देखते ही चले जा रहे हैं
अब तो बस आदत सी बन गयी है
अब तो जिन्दगी की मेहरबानियां ही
हमें साजिश नजर आती है
प्रस्तुति: राजकुमार गर्ग-
उम्मीद
किसी का जाना
दूर तक चलता है
खामोशी से साथ साथ
ज्यों वसंत में खिले फूल
लौट जाते हैं अपनी जमीन में
वसंत के जाते ही
छोड़ जाते हैं अपनी खुशबू
रहने के लिये साथ साथ
शकुन्तला भी तो
शायद ऐसी ही रही होगी
तुम्हारी तरह
एकटक देखती उस मोड़ को
ओझल हो गया जहां उसका दुष्यन्त
छोड़ कर
एक उम्मीद उसकी आंखों में
कुछ मोड़ होते ही ऐसे हैं
जहां वक्त तो आगे बढ़ जाता है
पर उसका वो पल
वहीं ठहर जाता है
काश मैं भी कालिदास होता
पढ़ पाता खामोशी
तुम्हारी आंखों की
लिख पाता वो उम्मीद
तक रही है आज भी जो
तुम्हारी आंखों से
खड़े खड़े
उसी ठहरे हुए पल की तरह
प्रस्तुति: राजकुमार गर्ग
दिनांक: 29 जुलाई 2021-
सोचता हर बार
चुरा ले कोई एक मुठ्ठी धूप उनसे
मेरे घर आंगन के लिये
कर जाये रेखांकित
मेरी हर उम्मीद जो
मेरी हर ख्वाहिश
मेरे जीवन्त होने की जो
मेरे जाने के बाद
रह जाये मेरे साथ
मेरे बाद
मेरी विस्तारित होती
आत्मा का अंश बन कर
अनन्त ब्रह्म मिलन की यात्रा के पहले
दे जाये मुझे भी
मेरे शिव का अपना छोटा सा अंश
अपने शिव से मिलने जाने के पहले
ये तुम ही तो हो
ले आये हो आज
अपनी छोटी बन्द मुठ्ठी में
थोड़ी सी धूप अपने साथ मेरे लिये
बिखर गयी है जो घर आंगन में
उगे आये हो एक सूरज सा
मेरी उम्मीदो के क्षितिज पर
मेरे लिये
तुम ही तो मेरे अपने शिव का अंश
था इंतजार जिसका
अपनी ढलान के इस मोड़ पर
स्वागत है नवागत तुम्हारा
स्वागत है मेरे शिवांश
मेरे घर तुम्हारा
प्रस्तुति: राजकुमार गर्ग
दिनांक: 14 सितम्बर 2020-
शिवांश
तकता था सूरज को रोज
उगता था पहाड़ियो के पार
क्षितिज पर जो रोज
देखता था रोज धूप को
अपने होने की जमीन थामे
पहाड़ की ढलान पर
विस्तारित अनन्त यात्रा पर
जाने से पहले इंतजार कर रहे
पाईन पेड़ों की
उम्मीदों की छलनी से छन कर
आती इस पार
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सुनो
सुनो
कभी भी तुम
आ जाओ
सर्दी की चढ़ती धूप के साथ....
आओ जब भी तुम
मिलकर बुनेंगें
फिर से हम दोनो
यादें उन गलियों की
ऊंगलियां पकड़
एक दूसरे की
घूमा करते थे
हम दोनो
सर्दी की हर शाम
जब भी आओ तुम
अपनी ज़िन्दगी के
प्रमेय के कुछ
अनसुलझे से
प्रश्न ला सकती हो
अगर चाहो तो
प्रस्तुति: राजकुमार गर्ग
दिनांक: 26 जून 2020
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एक एहसास सिंदूरी सा...
थरथराते लम्हे
सिमट आये थे
उन ऊंगलियों में
थाम ली थी जिन्हें मेरे
अन्दर के समुन्दर में
उठते ज्वारों ने ही
एक एक लहर
तुम्हारे एहसासों की भी
समेट सारी कायनात
अपने अन्दर ही
टकरा कर
मेरे साहिल से ही
लौट जाती
मेरे समुन्दर के
उसी ज्वार के
साथ साथ
क्षितिज पर खड़ी
सिंदूरी गोधूलि से
चुरा कर कुछ रंग
भर देते
वे लम्हें
उन रंगों को
तुम्हारे ही गालों में
देखते देखते
पूरा समुन्दर भी
सिंदूरी हो उठता
मेरा भी
तुम्हारा भी
प्रस्तुति: राजकुमार गर्ग
दिनांक: 5 जुलाई 2018-