अजब गजब के रिश्ते है आज कल के दौर मैं
रात को पानी मैने दिया था ये भी याद दिला देते है भोर मैं।
*भोर* (सुबह)-
सुबह शाम भाग रहे है जीवन की दौड़ मैं
कोई पूछे क्या हाल है तो कहते है भाई मौज मैं।-
सुनहरी शाम है, सूरज चुप सा लगा है,
खामोशी में भी जैसे कुछ कह गया है।
हम सोचते हैं — हर वक़्त कुछ नहीं बदला,
मगर ग़ौर से देखो — हर लम्हा बदल रहा है।
रंग बदलते हैं, बादल सरकते हैं,
धीरे-धीरे ही सही, मगर सब कुछ चलता है।
वक़्त की रवानी में छुपा है इक फ़लसफ़ा,
जो ठहर गया है — वो भी बदल रहा है।-
मन ये ख़ूबसूरत समा चाहता है,
दिल फिर से वही बचपना चाहता है।
जहाँ खिलौनों में दुनिया बसा करती थी,
और मिट्टी की ख़ुशबू में माँ हँसा करती थी।
ना था कोई ग़म, ना फ़ासलों का एहसास,
हर चेहरा लगता था अपना, हर पल था ख़ास।
चाँद को छू लेने की ज़िद थी उस वक़्त,
वक़्त भी तब खिलता था, था सब कुछ साथ।
अब तो हर मुस्कुराहट में छुपी सी उदासी है,
दिल के कोने में अब भी एक नर्मी बची ख़ासी है।
मन चाहता है कुछ देर को रुक जाए ये राह,
फिर से मिल जाए वो निर्दोष सी आह।
राहुल प्रिया तोमर-
चाह थी बड़े होने की बचपन में,
अब दिल वापस बचपन चाहता है।
जगते, भागते रहते थे उस वक़्त हम,
अब ये दिल बस आराम चाहता है।...(Continue reading)
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