अब समाप्त हो चुका मेरा काम।
करना है बस आराम ही आराम।
अब न खुरपी, न हँसिया,
न पुरवट, न लढ़िया,
न रखरखाव, न हर, न हेंगा।
मेरी मिट्टी में जो कुछ निहित था,
उसे मैंने जोत-वो,
अश्रु स्वेद-रक्त से सींच निकाला,
काटा,
खलिहान का खलिहान पाटा,
अब मौत क्या ले जाएगी मेरी मिट्टी से ठेंगा !-
जब तान छिड़ी, मैं बोल उठा
जब थाप पड़ी, पग डोल उठा
औरों के स्वर में स्वर भर कर
अब तक गाया तो क्या गया ?
#हरिशंकर_परसाई-
दुःख एक अनहद नाद है , जब कभी भी यह आहद बनता है इसकी कोई भाषा नहीं होती, कोई ध्वनि या वर्ण नहीं होता । बस आँसू हीं हैं जो इन्हें सार्थक अभिव्यक्ति दे पाने में सफल रहते हैं ।
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स्वागत है !
नव वर्ष का ,
नव वर्ष के नव सूरज का ,
नव सूरज के नव प्रकाश का ,
नव प्रकाश से दीपित नभ का ,
नव नभ से आलोकित पथ का ,
नव पथ पर अग्रेसित जीवन ,
नव जीवन के हर स्पंदन का ,
स्पंदन पर आरुढ़ तरंगे ,
नव तरंग के नव आशा का !
स्वागत ! स्वागत ! स्वागत !
@राहुल-
गाँधी जिन्दा रहेगा......
शहरों के MG रोड़ों में ,
आपके पर्स में रखे नोटों में,
मुन्नाभाई के किरदारों में,
आपके आदर्शों में,
आपके भडासों में,
नेहरु-पटेल की तालियों में,
जिन्ना-चर्चिल की गालियों में,
"मज़बूरी का नाम महात्मा गाँधी" जैसे जुमलों में,
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गाँधी पुनर्परिभाषित होता रहेगा,
पर गाँधी जिन्दा रहेगा !-
आर्मी और पैरामिलिट्री के लोग देश सेवा के अलावे एक और प्रमुख सेवा करते हैं । वो ये कि लगन और शादी-विवाह के समय अपने सगे-संबंधियों , गाँव वालों, पड़ोसियों इत्यादि को अटैची, बैग, ट्रॉली, पीयर्स साबुन, फेयर एंड लवली क्रीम, बजाज आलमंड ड्रॉप तेल इत्यादि कैंटीन से दिलवा कर अपार यश और सुकृति के भागी बनते हैं । यह देश सेवा का एक सर्वसमावेशी स्वरूप है । :-)
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शब्द जब बोलते बोलते थक जाते हैं तो मौन उनका साथ देता है । शब्द जिसे अभिव्यक्त कर पाने में असमर्थ हो जाते हैं , मौन उसे बड़ी सहजता से बयान कर देता है । दो शब्दों के बीच में जो वक्फा होता है वही ज्यादा मुखर होता है । गति ही सदैव प्रासंगिक नही है अक्सरहां विराम ज्यादा सार्थक होता है । आप भी कभी शब्दों के बीच मौन को और गति के बीच विराम को महसूस कीजिएगा , पाइयेगा कि मौन ज्यादा मुखर है और विराम ज्यादा गतिमान ।
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आज ऋतुराज वसंत का आगमन हुआ !
अब कोयल की मीठी कूक
कानों में मधुरता घोलेगी ,
सरसों के पीले फूल
खेतों का सृंगार करेंगे ,
आमों के नए मंजर
भवरों को रिझायेंगे ,
प्रातः शुभ्र ऒस की बूंदें
हरे दूबों की मुकुट बनेंगी !
बसंती हवा की मखमली छुवन
रगों में सिहरन घोलेगी ,
कामदेव उन्मत्त होकर
सम्पूर्ण कलाओं सहित प्रस्तुत रहेंगे ,
प्रकृति सोलहों सृंगार करके
नवयौवना को चुनौती देगी ,
अलसाई पलकें सुबह होते ही
शाम का इंतजार करेंगी !
ऐसे में सभी खुश हैं, सभी मस्त हैं,
सभी उन्मत्त हैं, सभी जोश में हैं !
लेकिन
फुटपाथ पे रहने वाला "कलुआ" ?
-वो तो सबसे ज्यादा खुश है !
क्योंकि
अब उसकी पतली, फटी, घिंसी चादर
"नींद भरी रातें" तो लाएगी ,
जो पिछले तीन महीनों से ठिठुरा रही थी !-