देखता और न ठहरता तो कोई बात भी थी जिस ने देखा ही नही उस से ख़फ़ा क्या होना तुझ से दूरी में भी ख़ुश रहता हूँ पहले की तरह बस किसी वक़्त बुरा लगता है तन्हा होना
अब जहाँ भी हैं वहीं तक लिखो रूदाद-ए-सफ़र हम तो निकले थे कहीं और ही जाने के लिए मेज़ पर ताश के पत्तों-सी सजी है दुनिया कोई खोने के लिए है कोई पाने के लिए तुमसे छुट कर भी तुम्हें भूलना आसान न था तुमको ही याद किया तुमको भुलाने के लिए
वो के हर अहद-ए-मुहब्बत से मुकरता जाए दिल वो ज़ालिम के उसी शख़्स पे मरता जाये मेरे पहलू में वो आया भी तो ख़ुश्बू की तरह मैं उसे जितना समेटूँ वो बिखरता जाये खुलते जायें जो तेरे बंद-ए-कबा ज़ुल्फ़ के साथ रंग-ए-पैराहन-ए-शब और निखरता जाये
राह में मिलिये कभी मुझ से तो अज़ राह-ए-सितम होंठ अपने काटकर फ़ौरन जुदा हो जाइये, जी में आता है के उस शौक़-ए-तग़ाफ़ुल केश से अब ना मिलिये फिर कभी और बेवफ़ा हो जाइये.
तेरे जाने के बाद कोई भी आहट कब से हुई नहीं है, तेरी यादों के साथ तन्हाई जो मेरे घर में रहने लगी है, मैं उम्मीद से आया था कि ये किनारे मुझे पल भर का सुकून देंगे, मुझे सताने के लिए ये लहरें तेरी चूड़ियों की तरह खनकने लगी है,