Rahul Pandey   (Rahul “साँकृत”)
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Joined 19 July 2021


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25 APR AT 13:59

अज़ीब शय है ज़िन्दगी,
सांस लो तो चलती है, और
हर सांस पर कम हो जाती है।
अज़ीब शय है ज़िन्दगी।।

बनाते हैं दोस्त ता-ज़िन्दगी के लिये,
और ता-ज़िन्दगी तनहा बिताते हैं।
अज़ीब शय है ज़िन्दगी।।

कभी तो नींद है गायब, और
कभी थक कर भी नींद नहीं आती।
अज़ीब शय है ज़िन्दगी।।

वही दरख़्त छाँव देता है, और
उसी की फांस चुभ जाती है।
अज़ीब शय है ज़िन्दगी।।

ख़ैर जो भी है, अपनी है ये ज़िंदगी!

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31 MAR AT 9:51

आज कल बहुधा यह सुनने को मिलता है कि “मैं अपने सिद्धांतों के साथ समझौता नहीं कर सकता”। अब यहाँ दो बातें हैं - (१) यह आपकी अन्य लोगों के विचारों के प्रति असहिष्णुता की भावना को दर्शाता है, और (२) आपने समझा ही नहीं कि “सिद्धांत” शब्द का भाव और अर्थ क्या है।

सिद्धांत शब्द का प्रयोग, धर्म, विज्ञान और दर्शन में मुख्य रूप से किया जाता रहा है। और इसका शाब्दिक अर्थ है ‘जिस विचार/प्रमेय को सिद्ध करना था उसको प्रमाणों के साथ सिद्ध किया जा चुका है और वह अब एक नियम बनने के लिये उद्यत है’। इस शब्द के भाव में यदि जायेंगे तो यह बहुत लंबा विषय होगा।

अब यदि आपके सिद्धांत हैं तो संभवतः आपने उन्हें सिद्ध भी किया होगा प्रमाणों के साथ? यदि नहीं तो वो सिद्धांत नहीं अपितु आपके दृष्टिकोण को दर्शाता है - जो आपके सामाजिक अनुभवों पर आधारित है। और आवश्यक नहीं कि समाज के अन्य व्यक्ति भी आपके अनुभवों से तारतम्य रखें।

अपने विचारों को सिद्धांतों का चोला पहना कर सबको उनके आधार पर चलने के लिये विवश ना करें। सामाजिक और पारिवारिक सहिष्णुता अक्षुण्ण रखने के लिये आवश्यक है कि सबको अपने विचार रखने के लिये उचित स्थान मिले और उनपर सौहार्द्यपूर्ण रूप में चर्चा का अवसर मिले।

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27 MAR AT 21:05

तुम्हें लगता है कि तुम सब जानते हो, ग़ुरूर अच्छा है।
पर सब तुम्हें सुनना ही चाहें, ऐसी भला रस्म है क्या?

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21 OCT 2023 AT 21:44

“संस्कार” एक अधिमूल्यांकित (overrated) शब्द है और बहुधा इसकी परिभाषा व्यक्तिपरक होती है। सामाजिक व्यवस्था, जिसमें व्यक्ति और उससे जुड़ी व्यवस्थायें निरंतर बदलाव से हो कर आगे बढ़ रही हैं, संस्कारों की परिभाषा भी बदल रही है। आज वह व्यक्ति (या समूह/समुदाय) अधिकतर दुःखी है जिन्होंने अपने सुविधानुसार अपने जीवन में भौतिक बदलाव तो कर लिये हैं परंतु यदि आज की पीढ़ी कुछ ऐसे बदलाव करती है जो उनकी “स्वघोषित” मान्यताओं के विरुद्ध है तो वो ऐसे बदलावों को “संस्कारों के हनन” की श्रेणी में लाते हैं। हमारे पूर्वजों ने मानवता के विकास और मानव कल्याण के लिये एक सूत्र दिया है - धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों मे सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो। अब इस सूत्र के हर शब्द का विश्लेषण करने के लिये आप स्वतंत्र हैं परंतु एक बात यहाँ पर जो ध्यान करने योग्य है कि अंत में सब कुछ सद्भावना और विश्व कल्याण पर आती है। और इसके लिये हर व्यक्ति को आज के परिप्रेक्ष्य में सबका सम्मान (और सम्मान का अर्थ यह नहीं कि आप किसी के भी सपने नतमस्तक हो जायें), चाहे वो उम्र में छोटे हों या बड़े, महिला हैं या पुरुष, किसी भी धर्म या जाति के हों, और अपने व्यवहार में सहानुभूति का भाव रखना आवश्यक है। ऐसा अधिकतर देखा गया है कि यदि आप अपने से छोटे का सम्मान करते हैं तो अधिकतर परम्परा और संस्कारों की दुहाई देने वाले लोगों को ये अच्छा नहीं लगता है। पर ऐसा कहाँ लिखा गया है कि जो आप से उम्र और रिश्ते में बड़े हैं वो हमेशा सही ही कहते या करते हैं। आप अपने से छोटे (उम्र पद या रिश्ते में) को यदि स्थान देते हैं, सम्मान देते हैं और उस पर अपनी विचारधारा नहीं थोपते हैं तो यह संभव है कि वह व्यक्ति आपके सम्मान में गुणात्मक वृद्धि करेगा।

संस्कार आवश्यक हैं परंतु परिप्रेक्ष्य में। सम्मान भी आवश्यक है पर यह पारस्परिक होना चाहिये। शासनात्मक प्रवृत्ति को बाहर कर, भावनात्मक प्रवृत्ति का व्यवहार में लाना सबके लिये सुखदायक होगा। एक बार पुनः-

धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों मे सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो।

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14 OCT 2023 AT 13:27

गिला उनको कि हाल-ए-दिल बयाँ होता नहीं मुझसे,
कोई तो बात होगी, जो दिल मेरा चुप चाप रहता है।

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13 OCT 2023 AT 21:54

हमारे अश्क़ देखे हैं, हमें कमज़ोर समझने वाले,
जिन्होंने आग समझा है, उन्होंने सच में जाना है।

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4 OCT 2023 AT 14:18

मौन हैं शब्द मेरे, पर संवेदना मुखर है,
शांत हैं भाव मेरे, पर उद्वेग प्रबल है।

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2 OCT 2023 AT 7:54

इश्क़ की बाज़ियाँ खेलते हो, संभल जाओ, राह मुश्किल है,
मुहब्बत के तार छेड़ते हो, ठहर जाओ, गीत मुश्किल है।

हमने जिया है, ये इश्क़, और इसकी सारी रवायतें भी,
इश्क़ में पड़ना है बहुत आसान, निभाना मुश्किल है।

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28 SEP 2023 AT 19:12

वो क़िस्से सुनाता रहा, हर वक़्त मुस्कुराता रहा,
दर्द बेच कर अपने, वो ख़ुशियाँ लुटाता रहा।
जब अश्क़ उसके उतरे, बोला कि हँस रहा हूँ,
चेहरे पे ले कर रौनक़, वो महफ़िल सजाता रहा।
एक आस थीं जो मन की, मन की सुने भी कोई,
इस आस के सहारे, वो कारवाँ बनाता रहा।
ये ज़िंदगी भी लेकिन, कितनी अज़ीब शय है,
जब दूर इससे भागा, और पास लाता रहा।

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27 AUG 2023 AT 12:54

क्यूँ हम ज़िंदगी से हार कर रस्ता बदल लें!!
जज़्बात बिखरे हैं, हौसला अब भी बाक़ी है।

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