“संस्कार” एक अधिमूल्यांकित (overrated) शब्द है और बहुधा इसकी परिभाषा व्यक्तिपरक होती है। सामाजिक व्यवस्था, जिसमें व्यक्ति और उससे जुड़ी व्यवस्थायें निरंतर बदलाव से हो कर आगे बढ़ रही हैं, संस्कारों की परिभाषा भी बदल रही है। आज वह व्यक्ति (या समूह/समुदाय) अधिकतर दुःखी है जिन्होंने अपने सुविधानुसार अपने जीवन में भौतिक बदलाव तो कर लिये हैं परंतु यदि आज की पीढ़ी कुछ ऐसे बदलाव करती है जो उनकी “स्वघोषित” मान्यताओं के विरुद्ध है तो वो ऐसे बदलावों को “संस्कारों के हनन” की श्रेणी में लाते हैं। हमारे पूर्वजों ने मानवता के विकास और मानव कल्याण के लिये एक सूत्र दिया है - धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों मे सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो। अब इस सूत्र के हर शब्द का विश्लेषण करने के लिये आप स्वतंत्र हैं परंतु एक बात यहाँ पर जो ध्यान करने योग्य है कि अंत में सब कुछ सद्भावना और विश्व कल्याण पर आती है। और इसके लिये हर व्यक्ति को आज के परिप्रेक्ष्य में सबका सम्मान (और सम्मान का अर्थ यह नहीं कि आप किसी के भी सपने नतमस्तक हो जायें), चाहे वो उम्र में छोटे हों या बड़े, महिला हैं या पुरुष, किसी भी धर्म या जाति के हों, और अपने व्यवहार में सहानुभूति का भाव रखना आवश्यक है। ऐसा अधिकतर देखा गया है कि यदि आप अपने से छोटे का सम्मान करते हैं तो अधिकतर परम्परा और संस्कारों की दुहाई देने वाले लोगों को ये अच्छा नहीं लगता है। पर ऐसा कहाँ लिखा गया है कि जो आप से उम्र और रिश्ते में बड़े हैं वो हमेशा सही ही कहते या करते हैं। आप अपने से छोटे (उम्र पद या रिश्ते में) को यदि स्थान देते हैं, सम्मान देते हैं और उस पर अपनी विचारधारा नहीं थोपते हैं तो यह संभव है कि वह व्यक्ति आपके सम्मान में गुणात्मक वृद्धि करेगा।
संस्कार आवश्यक हैं परंतु परिप्रेक्ष्य में। सम्मान भी आवश्यक है पर यह पारस्परिक होना चाहिये। शासनात्मक प्रवृत्ति को बाहर कर, भावनात्मक प्रवृत्ति का व्यवहार में लाना सबके लिये सुखदायक होगा। एक बार पुनः-
धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों मे सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो।
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