Rahul Kumar   (राहुल की डायरी)
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Truth is like Poetry and Most people fucking hate Poetry
Joined 2 October 2017


Truth is like Poetry and Most people fucking hate Poetry
Joined 2 October 2017
21 JUN 2022 AT 10:31

तुम्हारी आंखों में बसती है
मेरी सब कविताएं

जैसे प्राण बसता है
परमात्मा की छाया में

जैसे मौज बसती है
हर लहर की काया में

जैसे बीज की कोख में
बसती है नव-जीवन की आशा

जैसे नन्ही शाखों पर
खिलती है
प्रेम की अलग-अलग परिभाषा

जैसे अंधकूप की सर्द आभा में
लिपट ठिठुरते नार्वे की घाटियों में
एक रोज़ निकल आता है
मध्यरात्रि का सूर्य ।

वैसे ही आज जीवंत हैं
तुम्हारी आंखें, मेरी कलम
और एक कविता ।।


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4 MAY 2022 AT 23:16

प्रेम की परिभाषा क्या है?

उसके बंधे बालों का खुलना
फ़िर चेहरे पर बिखेर देना...

उसकी बातूनी आंखों
की बक बक

उसकी ज़िद्द
उसके झूठे झगड़े ...

उसकी मुलायम मौजूदगी...
उसके जाने पर हवा से
नमीं का सहसा गायब हो जाना ...

प्रेम जब जब कैनवस पर
उतारा गया
हर बार झलका है मुझे
उसका ही कोई रंग ।।


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4 APR 2022 AT 22:46

ये रात यूंही ढल जाएगी,
शबनम की सब बूंदें
नसीम की आहट पर
उछल पड़ेंगी पंखुड़ियों की गोद से
याद बन जाएगी हर शरारत अपनी
मेरे माथे पर उभर आएगा
तुम्हारे नर्म होंठों का एहसास
मेरे मुस्तकबिल पर छायी रहेगी
तुम्हारे प्रेम की नारंगी धूप ।
तुम्हारी भीनी खुशबू में
मैं खोया रहूंगा
उम्र भर।
मेरे इश्क के सब दस्तावेज
जीवित रहेंगे
मेरी कविता में
तुम्हारी आंखों में ......

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28 MAR 2022 AT 20:40

जैसे रात के मायूस दामन में
कुमकुम का लेप लगाने आ जाता है सूरज ।

जैसे पतझड़ की वीरान शाख पर
ब्याह रचाने लौट आती है बहार ।

जैसे किताबों में मिल जाती है
कभी-कभार एक पुरानी चिट्ठी ।

जैसे सूखे तालाब की गोद में
जाग उठती है बरखा की प्रथम फुहार।

जैसे पुराने मंदिर की चौखट पर
एक रोज़ जला देती है एक नन्ही बच्ची
उम्मीद का दीपक ।

जैसे किसी अबोध बालक के चेहरे पर
लौट आती है हंसी - मां की आहट मात्र से

यूंही, प्रेम भी
एक रोज़- तुम्हारी उंगलियों में
लिपट जाएगा ।
तुम देखना ।।

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20 SEP 2019 AT 1:11

मेरे अंदर बसता है
एक शहर मेरा
जिसकी तंग गलियों में
पुराने बक्से की चाभी सा
मैं अक्सर गुम हो जाता हूं ।
पास ही बहती है गंगा
जिसके किनारों को
छू कर लौटती लहरों से
अपने घर का पता पूछ मैं आता हूं ।
यहां की सड़के सारी
उसके घर तक आकर
रुक जाती हैं ।
यहां की हर सुबह
खिड़की से आकर
मेरे सिरहाने बैठ जाती है
यहां की दोपहर नकचढ़ी है
मूइ हर रोज़ लड़ पड़ती है ।
शाम से अपनी यारी है
हर शाम चाय पर
कोई नया किस्सा सुनाती है ।
रात इस शहर की
थोड़ी शर्मीली सी है
परत दर परत
खुलते खुलते
पूरी रात लगा देती है....

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24 JUL 2021 AT 21:02

बसंत की उस सुबह के लौट
आने की आहट,पांव में बांधे

सर्दी की दोपहर, गुनगुनी धूप
और उसकी मुलायम गर्माहट, जेबों में भरे

हल्की बारिश में उग आए
एक इन्द्रधनुष अपनी देह में लपेटे

आज चौखट पर वही पुरानी शाम आई है।

अपलक निहार रही है
बूंदों की थपथपाहट संग
मोम सी विलीन होती इस रात को।।

ये शाम जब जब ढलती है
एक कविता मुझमें साकार करती है।।

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28 MAY 2021 AT 21:03

सुबह से शाम
चलते-चलते
अब दिन
ऊंघने लगा है
नीली पहाड़ी के कंधों पर

थके हुए आकाश
के बालों में
उंगलियां फिराने
धिरे धिरे घिर आई है रात ।

चांद भी उतर आया
बादलों की झील में
झील - जैसे हो तुम्हारी आंखें ।
रोज़ थोड़ा थोड़ा बढ़ता हुआ
पूनम को हो जाएगा बिल्कुल
तुम्हारे माथे की बिंदी ।
फिर ऐसे पिघलेगा
जैसे कोई धीमी आंच पर
पकने छोड़ गया हो
मक्खन की एक डली ।
और एक रोज़ - गुम हो जाएगा
स्याह रात की थाली में -
धुल जाएगा चौदह रातों का
सोलह श्रृंगार ।।
चांद का किस्सा ही है
प्रथम प्रेम,
जीवन की कहानी,
और अंतिम सत्य ।।

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12 APR 2021 AT 18:34

वक्त की तपती रेत में
सदियों से दौड़ रही
एक स्त्री
आज आ पहुंची है
मेरी चौखट पर
और बैठ कर बस एकटक ताक रही है
मेरे मन में बसे शून्य को ,
उसके चेहरे पर लिखे असंख्य प्रश्न
मुझे विचलित कर विवशता की अंधेरी कोठरी में
बांध रहे हैं ।
मैं अब निहार रहा हूं उसे.... बस निहार रहा हूं....

पांव के छाले उसके कहानी कहते हैं
एक मेमने की जो पुकार रहा है
दूर घने जंगलों से ।
भूख से बिलखते एक नवजात शिशु
की आवाज
उसके आंचल से बंधी है ।
सिर पर उसके
किसी पुरानी चोट के निशान हैं ।
जिसमें से बह रहा है किसी निर्मम रात का किस्सा
आंखों में उसके बसता है एक रेगिस्तान
जिसमें एक छोटा पौधा जैसे तैसे
जीवन की बाट जोह रहा है ।

ये स्त्री संपूर्ण मानव अस्तित्व के
अंतिम यात्रा का उद्घोष है ।
इस स्त्री को मैं बचा लेना चाहता हूं
बचा लूंगा ।।

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1 MAR 2021 AT 0:18

दिन भर की थकन
से चूर जब
क्षितिज पर
औंधे मुंह गिर जाता है
सूरज

और रात
अपने श्रिंगार में
लीन हो , कर देती है
कुछ पलों की देरी ...

तब , अपने दामन में
जुगनूओं की टोली सजा
लौटते पंछियों के परों पर
बैठकर
बच्चों की दौड़ती भीड़ संग
गिरती , संभलती , पैरों में धूल लपेटे
मेरी चौखट पर आकर
बैठ जाती है एक शाम ।
मेरे दिन‌ भर के किस्सों में
अपना बिंब खोजती हुई
सो जाती है , मेरे कंधे से लगकर
और चांद की धीमी लौ पर रात चढ़ा कर
मैं पकाता हूं एक और नई कविता
मेरी शाम के नाम.....



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1 JAN 2021 AT 18:58

कैसे मान लूं वो साल बुरा था
माना हम सभी कैद थे
माना बाहर वबा थी
माना रूठ गई थी पुरवाई ,
गुमसुम उदास सबा थी ....

माना हम जा ना सके
पहाड़ों की सैर में ...
माना नहीं मिली एक प्याली चाय
माॅल रोड की सर्द दोपहर में

माना नहीं पीया हमने
पिघलते सूरज की बची हुई बूंदों को
किसी शाम यूं ही गंगा किनारे बैठकर

माना अपने प्रेम में बसी संभावनाओं
को पूरा पूरा मूर्त ना कर सके हम ...
फिसल गए जीवन की मुट्ठी से
कई अनमोल सितारे

पर क्या देखा था तुमने कभी
टोक्यो की चौक में टहलते
हिरनों के झुंड को ?
या वेनिस के नालों में
लौट आए उन रंग-बिरंगी मछलियों को
या पश्चिमी घाट में
रहने आई उन प्यारी तितलियों
की बेबाकी से कभी रू-ब-रू हुए थे ?

अपने भीतर बैठे कवि , लेखक , चित्रकार
गायक , मास्टर शेफ ....
इन सब से भी तो इसी साल मिले हैं हम सभी ।
बीता साल सबक था - पिता की डांट
मां के दुलार में लिपटा - एक सबक ।।




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