दिन भर की थकन
से चूर जब
क्षितिज पर
औंधे मुंह गिर जाता है
सूरज
और रात
अपने श्रिंगार में
लीन हो , कर देती है
कुछ पलों की देरी ...
तब , अपने दामन में
जुगनूओं की टोली सजा
लौटते पंछियों के परों पर
बैठकर
बच्चों की दौड़ती भीड़ संग
गिरती , संभलती , पैरों में धूल लपेटे
मेरी चौखट पर आकर
बैठ जाती है एक शाम ।
मेरे दिन भर के किस्सों में
अपना बिंब खोजती हुई
सो जाती है , मेरे कंधे से लगकर
और चांद की धीमी लौ पर रात चढ़ा कर
मैं पकाता हूं एक और नई कविता
मेरी शाम के नाम.....
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