कलम में धार अब कुछ सूनी सी है,
मुद्दतों में एक दफा स्याही फिसल जाया करती है..
गुजरता वक्त कई अजीब फलसफें सिखाता है,
इंसान हूं, रूह सिहर जाया करती है...
सफर पाक-ऐ-साफ हो ये मुमकिन तो नहीं,
तलवों की तकदीर में कंकर ना हों, ये मुमकिन तो नहीं..
घुप्प तमस बीच मां को मुस्कुराता देख लेता हूं,
हिम्मत, जो बिखर गई थी, फिर निखर जाया करती है...
मैं, जो वो था, अब रहा नहीं साकी,
बेफिक्र सूफियों संग भटक जाया करता हूं..
मायूसी अब तुझमें घर करती नहीं 'राहुल'
आंधियों सी आती है, कैफियत पूछ मंद पवन सी गुजर जाया करती है...
दुख का कोई ठिकाना क्या, बीते हुए पर पछताना क्या,
आते नहीं यहां सदैव रहने, पल पल नैन भिगाना क्या..
सवारी - जो चलना भी दुभर हो चुकी थी,
"मैं" का बोझ जो हटाया, अब सरपट दौड़ जाया करती है....
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