Rahul Bhoyar   (Rahul Bhoyar)
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Joined 7 July 2019


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Joined 7 July 2019
21 NOV 2023 AT 23:43

कभी कभी आप हो जाते हो अकेले,

आप हो जाते हो अशांत, आप हो जाते हो असहज,

आप हो जाते हो निरुत्तर,

सब होते है आपके पास, सभी देते हैं सुझाव..


कभी कभी होता है ऐसा भी,

कि नहीं चाहता कोई बुराई आपकी, 

ना ही कोई आपसे मतलबी संबंध रखता है,


फिर क्यों हो जाते हैं हम असहज?

क्यों हम एक असीमित मार्ग पर बेसुध से चले चलते हैं?

क्यों हम सभी शुभचिंतकों की उपस्थिति में भी स्वयं को इस संसार में पाते हैं प्रेम के लिए लालायत?

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13 MAY 2023 AT 20:54

कलम में धार अब कुछ सूनी सी है,
मुद्दतों में एक दफा स्याही फिसल जाया करती है..
गुजरता वक्त कई अजीब फलसफें सिखाता है,
इंसान हूं, रूह सिहर जाया करती है...

सफर पाक-ऐ-साफ हो ये मुमकिन तो नहीं,
तलवों की तकदीर में कंकर ना हों, ये मुमकिन तो नहीं..
घुप्प तमस बीच मां को मुस्कुराता देख लेता हूं,
हिम्मत, जो बिखर गई थी, फिर निखर जाया करती है...

मैं, जो वो था, अब रहा नहीं साकी,
बेफिक्र सूफियों संग भटक जाया करता हूं..
मायूसी अब तुझमें घर करती नहीं 'राहुल'
आंधियों सी आती है, कैफियत पूछ मंद पवन सी गुजर जाया करती है...

दुख का कोई ठिकाना क्या, बीते हुए पर पछताना क्या,
आते नहीं यहां सदैव रहने, पल पल नैन भिगाना क्या..
सवारी - जो चलना भी दुभर हो चुकी थी,
"मैं" का बोझ जो हटाया, अब सरपट दौड़ जाया करती है....

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10 SEP 2022 AT 22:15

अल्हड़ उम्र में वालीदें से मुजाहमत हो तो गुस्सा आता है
नजर कमज़ोर पड़ने पर उनसे बेरुखियां बढ़ जाती हैं,
और,अपनी ही औलाद जब घर से बेघर कर देती हैं
वक्त रहते वालिदें की कदर करना बेहतर होता है...

क्या खूब फरमाया है किसीने ऐ गालिब,
बिरादरी में रुतबा बड़ा ना हो, तो कैफियत तक नहीं पूछी जाती,
इक शरर अपने अंदर जिंदा रखनी पड़ती है
शरर से आग बन जाना बेहतर होता है...

हां! सच है! कोई नहीं आता यहां मील का पत्थर बनने
राख हो ही जाते हैं सभी सिकंदर यहां,
ज़िंदगी का क्या है, इक पल की खोज खबर नहीं,
गम भुलाकर हाफीजाओं को संजोना बेहतर होता है...

कुछ अफसानों का घट जाना ही बेहतर होता है..!

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10 SEP 2022 AT 22:11

कुछ अफसानों का घट जाना ही बेहतर होता है
लहरों का उछलकर फिर पलट जाना ही बेहतर होता है,
भरने को वीरान शजर के आंचल में जीवन की नई उमंग
सूखे पत्तों का झड़ जाना बेहतर होता है...

इक पल को आबादी का वहम महसूस हो
इक पल में रेत ही रेत का अंबार नजर आए,
चंद दिनों की महफिल सजाकर ज़िंदगी भर की मौत आ जाए
वक्त रहते हाथ से रेत का फिसल जाना बेहतर होता है...

और साकी, जाम तो फिर भी खूब वफादार होती है
मीठा ज़हर होकर भी कम से कम जुबां से तो जुड़ती है,
राम नाम जपते हुए घोंपते रहे पीठ पर छुरियां जो अनेक
कुछ डोरियों का टूट जाना बेहतर होता है...

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19 AUG 2022 AT 1:18

भटकता है पेट की आग में इंसान इस शहर-उस शहर,
ख़्वाब सारे एक जगह मुकम्मल होते तो क्या ही बात होती...

दर-ब-दर ठोकरे खाते फिरते हैं जो, सुकून की मुराद में,
मां की गोद में ज़िंदगी गुज़र जाती तो क्या ही बात होती...

और साकी, तिल-तिल कर मार रही है ये गम की जाम यहां,
कंबख्त गम सारे एक साथ नसीब हो जाते, तो क्या ही बात होती...

हो जाते अनगिनत राबतें राह में चलते हुए, गम ना था,
ये गुस्ताख इश्क ना हुआ होता तो क्या ही बात होती...

कोई धर्म को लेकर मार रहा है, कोई जाति को लेकर पीट रहा है,
हो रहा शोषण महिलाओं का कहीं पर, तो कहीं मां पिता बेइज्जत हो रहे हैं,
हो जाती गर मन की आजादी, तो क्या ही बात होती,
इंसान, इंसान ही रहता, हैवान ना बनता, तो क्या ही बात होती..!!

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23 MAY 2022 AT 17:27

यूं तो ताउम्र मुख्तलिफ सबक सिखता है आदमी,
इक कमबख्त जिंदगी समझने में...मुद्दतें गुज़र जाती हैं।।

मसला चश्म के भीतर हो, तवज्जो तूफान को दी जाती है,
गलतफहमियों के एहसास होने में...मुद्दतें गुज़र जाती हैं।।

निभाने वाले निभा ही लेते हैं, दूरियों को दोष नहीं दिया करते,
पाक-साफ इश्क नसीब होने में...मुद्दतें गुज़र जाती हैं।।

बेगैरत ज़माने के गिरेबान से, खुद्दारी की बू आती है,
बेलोस इंसान बनने में...मुद्दतें गुज़र जाती हैं!!

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19 MAR 2022 AT 2:24

यूं तो चलता था गाफिलों सा घुप्प वीरानों से होते हुए मैं, ओ साकी,
पर धुंधला ही सही, अब मुकम्मल मुकाम नजर आता है...

हीरे का लालची मैं जौहरी, पेड़ काटता गया, जमीं खोदता गया,
और कड़ी धूप में जी जो घबराया, दूर बचा हुआ इक छायादार पेड़ नजर आता है...

पिलाया जो था साकी तुमने, जहर था या शराब थी,
मर भी रहा हूं, झूम भी रहा हूं!
और फरेबी यारों का बाजार जो घूम आया मैं साकी,
क्या जहर, क्या शराब; दोनों का कड़वा स्वाद नज़र आता है!

और पूछते हो साकी, ये तजुर्बा किसकी देन है?
याद है कहा था? हकीम कमाल का हूं,एक झटके में बीमारी देखता हूं!
कि निर्दयी फूलों पर बेपरवाह भंवरे जो नज़र आते हैं,
देख लो साकी! बिना परखे ही हर कोई यहां इश्क में बीमार नजर आता हैं....

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12 JAN 2022 AT 2:21

बेमुस्तकील हयात के वीरानों से
कुछ बोलती हवाएं चलती है,
मैं तजुर्बों का ऐनक लगाया सूफी
हर उस हवा को देखता हूं।।

कि नियतें हवाओं की दो मुहीं शक्सियत है
गुस्ताखी बहाव करे, इल्जाम रोड़ों पर लगाती हैं,
और सुना है क़ासिद, मेरा सिर्फ बुरा ही सुनाता है..
मैं वजू का पाक आब हूं,
इस ओर देखता हूं, उस ओर देखता हूं।।

और जाम 'ज़िंदगी' नाम की, वाकई कड़वी है गालिब!!
ताउम्र मसलों की मुसलसल बिसात होती है,
जाकर मेरे अजीज़ से पूछो कभी, ऐ मुसाफिर,
मैं हकीम कमाल का हूं,एक झटके में बीमारी देखता हूं!

हां! लूट लेती हैं अक्सर ये हवाएं रफ्ता-रफ्ता मुझे,
और कैफियत की फिक्र गुमशुदा ही रहती है,
और Rahul, बावला-सा मैं, वो अब्र हूं,
ताउम्र महरूमों पे बरसता रहूं, यही ख्वाब देखता हूं।।



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2 SEP 2021 AT 1:05

यूं बेबस अंधेरी रातों में जाम चढ़ाया करते हो क्या,
एक कतरा वो भी घुटता है, एक कतरा तुम भी मरते हो क्या!

जो महरूम रखा था अपने दीदार से ताउम्र उस शख्स को,
गर मशहूर हुआ तो इक झलक भी देख पाऊंगी या नहीं, जालिमा इस खयाल से डरते हो क्या!.

मुख्तलिफ रांझाओं की कशिश में खो जो गए थे तुम,
अब पाने उस नायाब परिंदे को, ख्याली अर्श की ओर उड़ान भरते हो क्या!..

लगाकर तोहमत उसके इश्क पर, बनाई थी जहन्नुम जो हयात उसकी,
समझकर फर्श का गलीचा उसको, मुराद को उसकी रौंदा था,
अरे सुनकर अब क़ासिद से उस मासूम की दर्दनाक कैफियत,
टूटे हुए कांच-सा बिखरते हो क्या!...

एक कतरा वो भी घुटता है, एक कतरा तुम भी मरते हो क्या....







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30 JUL 2021 AT 23:08

याददाश्त का कमज़ोर होना इतनी भी बुरी बात नहीं,
बेचैन रहते हैं वह लोग जिन्हें हर बात याद रहती हैं...

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