कविताएँ जैसे सदियों से बुला रहीं हैं मुझे अक्सर ही मैं रातों को चौंक कर उठ जाती हूं जैसे सिरहाने बैठा हो कोई सौ जन्मों से और कह रहा हो कि तुम मुझे भूल तो नहीं गई तुम्हे याद है ना तुमने मुझे पनघट पे गुनगुनाया था धान की बालियों में मिलने को बुलाया था कभी मुझे अपनी चोटी में गूथ कर इतराती तो कभी पांव में पायल की तरह खनकाती गांव, नदी पोखरे पीपल की छांव और सत्ती माता मंदिर जहां तुम मुझे गले लगाती
आज क्यों तुमने मुझे भूला दिया चीनी नमक के डिब्बों में बन्द कर दिया है। मुझे खोलो मुझे आज़ाद करो मै तुम्हारी अभिव्यक्ति हूं तुम्हारा आईना हूं तुम्हारी पहचान हूं और कब तक भूली रहोगी तुम मुझे
हां, कुछ रातें कभी ग़ुज़रती नहीं, बस रेत की तरह मेरे और तुम्हारे दरमियाँ फैल जाती हैं.... हां, कोई-कोई दर्द कभी कम नहीं होता आंख के आंसुओं में बस जम जाता है...
समेट लेना चाहती हूं अपना वक्त पर तुम्हारी ख़्वाहिशों के चूहे कुतर जाते हैं सबकुछ....... मेरा मन, मेरा जोश मेरी आकांक्षाएं, मेरी उपलब्धियां मेरी चाहतें और मेरी ज़रूरतें... सब बेहाल है, फटेहाल है। पैबंद का हर रास्ता, मुमकिन नहीं होता दोस्त ज़रूरतों के जिस्म पर ये रोज़ की रफू गिरी किसी बोझ से कम नहीं, तुम कहो, मैं कब तक सूई तागे को थामे रहूँ?